दूसरा खण्ड] युद्ध जारी २४१ तरह मानो सिर्फ शोभा के लिए शरीर पर धारण किया है। ऐसे कवचवाले को युद्ध करने का सर्वोत्तम ढङ्ग ज्ञात होना चाहिए। सो बात दुर्योधन में बिलकुल ही नहीं है। खैर वह अब हमारे भुज-बल को देखे। ___ यह कह कर अर्जुन ने दुर्योधन के कवच को तोड़ने की चेष्टा छोड़ दी। उन्होंने उनकी शरमुष्टि और धनुष दोनों काट दिये और सारथि तथा घोड़ों को मार कर रथ के खण्ड खण्ड कर डाले । उस समय दुर्योधन की रक्षा के लिए कौरवों की असंख्य सेना वहाँ आ गई। वह अर्जुन को आगे बढ़ने से रोकने लगी। दिन बहुत ही थोड़ा रह गया। अर्जुन आगे बढ़ने से रोक दिये गये। यह देख धूल में लिपटे और पसीने में डूबे हुए कृष्ण ने कुमक के लिए अपने पाञ्चजन्य नाम के शङ्ख को बार बार बड़े जोर से बजाना प्रारम्भ किया। ___ उधर अर्जुन को रोकने के लिए दुर्योधन को भेज कर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। तब सात्यकि और धृष्टद्युम्न आदि वीर धर्मराज को घेर कर उनकी रक्षा करने लगे। इन लोगों को हटा कर युधिष्ठिर तक पहुँचने की द्रोण ने बहुत कोशिश की। पर उनके सारे प्रयत्न निष्फल हुए। तब उन्होंने लाचार होकर युधिष्ठिर को पाने की आशा छोड़ दी और सबके देखते पाञ्चाल लोगों का संहार प्रारम्भ कर दिया। बहुत देर तक घोर युद्ध होता रहा। इतने में कृष्ण के शङ्ख की आवाज़ और उसके साथ ही कौरवों की सेना का सिंहनाद युधिष्ठिर को दूर से सुनाई दिया। उसे सुन कर युधिष्ठिर का चित्त चचल हो उठा । वे घबरा गये । अन्त में जब उनसे न रहा गया तब उन्होंने सात्यकि से कहा :-- हे युयधान ! यह सुनो, अर्जुन के रथ के सामने महा कोलाहल हो रहा है और कृष्ण भी अपना शङ्ख बजा रहे हैं। यह देखा, अनगिनत चतुरङ्गिनी सेना चारों ओर से उसी तरफ दौड़ी जा रही है। इससे आकाश में धूल ही धूल दिखाई दे रही है। यह सेना इतनी अधिक है कि देवराज इन्द्र को भी यह सामने समर में हरा सकती है। इसे जीते बिना अर्जुन कदापि जयद्रथ तक न पहुँच सकेंगे। इधर सूर्य डूबने चाहता है। तुम अर्जुन के प्यारे शिष्य और हमारे परम हितकारी हो इससे अर्जुन की सहायता के लिए इस समय तुम्हें जरूर जाना चाहिए। यदि आचार्य तुम्हें रोकेंगे और तुम पर आक्रमण करेंगे तो हम सब मिलकर तुम्हारी रक्षा करेंगे। सात्यकि ने कहा :--हे धर्मराज ! आप जिस तरह अर्जुन को आज्ञा दे सकते हैं उसी तरह सङ्कोच छोड़ कर हमें भी दे सकते हैं। हम सर्वथा आपके आज्ञाकारी हैं। ऐसा कोई काम नहीं जिसे करने के लिए हम आपकी आज्ञा न मान सकें। विशेष करके अर्जुन के सम्बन्ध में दी गई आपकी आज्ञा तो हम प्राणों की भी परवा न करके पालन करने को तैयार हैं। किन्तु, एक बात हमें आपसे कहनी है, सुनिए। वीरशिरोमणि अर्जुन ने जाते समय बार बार हमसे कहा था :- ___ हे सात्यकि! धर्मराज को हम तुम्हारे और धृष्टद्युम्न के भरोसे छोड़ते हैं। हमारी गैर- हाज़िरी में द्रोण के आक्रमण से उनकी रक्षा करना। __इस दशा में उनकी आज्ञा और अपने निज के कर्त्तव्य का हम कैसे उल्लङ्घन कर सकते हैं। धनञ्जय के समान संसार में अन्य योद्धा नहीं। बड़े से बड़ा काम हाथ में लेने पर भी कभी उनका परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता। काम चाहे जैसा हो उसे वे पूरा कर ही के छोड़ते हैं। अतएव उनके विषय में आप कुछ भी चिन्ता न करें । कौरव लोग उनका कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। सात्यकि की बात का अच्छी तरह विचार करके धर्मराज ने कहा :- हे सात्यकि ! तुमने सब बात कही, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु हमारा मन नहीं गवाही देता। फा० ३१
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