२४८ सचित्र महाभारत [दूसस खण्ड कृष्ण के वचन सुन कर युधिष्ठिर भी रथ से उतर पड़े और कृष्णार्जुन को गले से लगा कर बोले :-- हे वीर । तुम्हें विजयी और प्रतिज्ञा से छूटे हुए देख कर हमें जो आनन्द हुआ है उसका वर्णन नहीं हो सकता । हे कृष्ण ! तुम्हारी सहायता पाने पर कौन काम ऐसा है जो न हो सके ? ___ इसके अनन्तर, पाण्डवों की सेना में सब कहीं आनन्द ही आनन्द छा गया। सब लोग आनन्द-सागर में यहाँ तक मम हो गये कि सायङ्काल होने पर भी युद्ध बन्द करने की किसी की भी इच्छा न हुई। इधर जयद्रथ के मारे जाने से दुर्योधन का धीरज छूट गया। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उनके चेहरे का रङ्ग फीका पड़ गया। बहुत ही दीन-वदन होकर, दाँत उखाड़े गये साँप की तरह, वे ठंडी साँसें लेने लगे । कुछ देर में द्रोण के पास जाकर उन्होंने कहा :- हे आचार्य्य ! हमारी तरफ़ होकर लड़नेवाले राजाओं का विनाश देखिए ! जिन राजों ने हमें राज्य देने की इच्छा प्रकट की थी वे सब इस समय पृथ्वी पर सोये पड़े हैं। उनका बल-उनका ऐश्वर्य-कछ भी हमारे काम न आया। हाय हाय । हमने अपना काम सिद्ध करने के लिए अपने इष्ट- मित्रों को मृत्यु के मुंह में झोंक दिया। अतएव हमारी बराबर कापुरुष-हमारी बराबर का नालायक-. मनुष्य पृथ्वी की पीठ पर न होगा। गुरु महाराज ! आपही ने हम लोगों की मौत बुलाई है। हमारे कारण ये सब राजा लोग जब नष्ट हो गये, और आप उनकी रक्षा न कर सके, तब हमारे जीते रहने से क्या प्रयोजन ! जीने की अपेक्षा हमारे लिए अब मरना ही अच्छा है। उत्तर में द्रोण ने कहा :- हे दुर्योधन ! अपने वचनरूपी बाणों से क्यों हमें व्यर्थ छेदते हो ? हम तो तुमसे सदा ही से कहते आये हैं कि अर्जुन को जीत लेना असम्भव है। तीनों लोकों में हम जिसे सबसे बड़ा योद्धा समझते थे वही भीष्म इनके प्रभाव से शर-शय्या में पड़े मृत्यु की राह देख रहे हैं। फिर यदि हम तुम्हारी सेना की रक्षा न कर सकें तो इसमें हमारा क्या अपराध है ? बेटा ! जुआ खेलते समय शकुनि ने जो पाँसे चलाये थे वही पाँसे इस समय अर्जुन के हाथ में तीक्ष्ण बाण बन कर तुम्हारी सेना का नाश कर रहे हैं। अधर्म का फल हमेशा ही बुरा होता है; उससे कोई नहीं बच सकता। कुछ भी हो, पाण्डवों के साथ पाञ्चाल-सेना हम पर आक्रमण करने के लिए आ रही है । अतएव, तुम्हारे वाक्य-बाणों से पीड़ित होने पर भी, हम, इस समय, प्राणों की परवा न करके युद्ध करने जाते हैं । जहाँ तक हो सके तुम भी सेना की रक्षा के लिए कमर कसा। यह कह कर, मन ही मन दुःखित द्रोण, पाण्डवों की सेना के सामने चले और युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। भीम और अर्जुन ने देखा कि प्राचार्य के बाणों से हमारी सेना बे-तरह पीड़ित हो रही है। इससे वे दौड़ पड़े और कौरवों की सेना में घुस कर द्रोणाचार्य पर बाण बरसाने लगे। महाभीषण संग्राम होने लगा। असंख्य वीर कट कट कर जमीन पर गिरने लगे। इस घोर युद्ध में जितनी तरह के शब्द सुन पड़ते थे, अर्जुन के गाण्डीव की टङ्कार का शब्द उन सबसे अधिक कलेजा कपानेवाला था। भीमसेन धन्वा पर बाण रख कर धृतराष्ट्र की सन्तान को, वन के आघात से गिरे हुए पेड़ों की तरह, ज़मीन पर गिराने लगे। महा-धनुर्धारी सात्यकि ने भी अपना बल-विक्रम दिखाने में कोई कसर न की । उन्होंने अनेक प्रकार से शर-युद्ध करके वीरों के मस्तक, हाथियों की सूंड, और घोड़ों की गरदने काट गिराई । युद्ध की रात एक तो यों ही भयावनी होती है। घायल वीरों, घोड़े और हाथियों की चीत्कार के कारण उसने और भी अधिक भयानक रूप धारण किया। युद्ध का यह हाल देख दुर्योधन ने कर्ण से कहा :-
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