२९२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड प्राणनाथ ! उन निर्दयी योद्धाओं ने तुम्हें असहाय जान कर भी किस तरह तुमको मार कर मुझे सदा के लिए दुःखिनी कर दिया ? हाय ! मालूम नहीं उस समय उन लोगों का मन कैसा हो गया था। हे वीर ! सिर्फ तुम्हारे न रहने से पाण्डवों का इतना बड़ा राज्य पाना भी अच्छा नहीं लगता। इन्द्रियों को वश में रख कर और धर्मपूर्वक आचरण करके मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास उस लोक में आऊँगी जिसे तुमने शस्त्र-बल से प्राप्त किया है। वहाँ तुमको मेरी रक्षा करनी होगी। हे नाथ ! तुम मेरे साथ इस पृथ्वी पर सि छः महीन रहे थे। अब वहाँ अप्सराओं से घिरे हुए रह कर भी कभी कभी मेरी याद कर लेना । हाय ! नियमित समय आने के पहले मरना बहुत कठिन है । नहीं तो मैं अब तक क्यों जीती रहती। हे कृष्ण ! जिसके डर से घबरा कर धर्मराज युधिष्ठिर तेरह वर्ष तक सुख से नहीं सोये, अग्नि की तरह तेजस्वी और हिमालय की तरह अटल उसी टुर्योधन का शरीर, हवा से टूटे हुए पेड़ की तरह, ज़मीन पर पड़ा है । यह देखो, कर्ण की स्त्री अधीर होकर कभी ज़मीन पर लोटती है और कभी उठ कर कर्ण के मुँह पर मुँह रखती है। गान्धारी ये बातें कर ही रही थीं कि उन्होंने दुर्योधन की लोथ को देखा। इससे असह्य शोक के वेग से बेहोश होकर वे ज़मीन पर गिर पड़ीं। जब कुछ होश आया तब निकट जाकर उन्होंने खून से भीगे हुए दुर्योधन के शरीर को हृदय से लगा लिया और हा पुत्र ! हा पुत्र ! कह कर विलाप करने लगी । हार धारण किये हुए दुर्योधन की चौड़ी छाती उनके आँसुओं से भीग गई । जब निकट खड़े हुए कृष्ण ने उनको उठाया और धीरज दिया तब वे कहने लगी :- हे केशव ! वंशनाश करनेवाले इस घोर युद्ध के शुरू होने के पहले ही जब मैंने दुर्योधन से कहा था कि जहाँ धर्म होगा वहीं जय होगी तब पुत्र को मरा हुया जान कर भी मैंने शोक नहीं किया था। पर इस समय मुझे बन्धु-बान्धवहीन बूढ़े राजा के लिए दुख है । जो हो, जब इस वीर ने वीरता से प्राण दिये हैं तब इसे दुलेभ स्वर्गलोक ज़रूर प्राप्त हुआ होगा। यह देखो, लक्ष्मण की माता कभी खून से लथपथ पुत्र का माथा सँघती है और कभी दुर्योधन के शरीर पर हाथ फेरती है। कभी तो वह पति के और कभी पुत्र के शोक से अधीर हो जाती है । हाय ! आज पुत्र-समेत दुर्योधन का मरा हुआ देख कर मेरे हृदय के सौ टुकड़े क्यों नहीं हो जाते ? हे वासुदेव ! यदि वेद और शास्त्र सच हैं तो मेरे पुत्र को निश्चय ही स्वर्गलोक मिला होगा। गान्धारी को फिर विह्वल देख कृष्ण ने कहा :- रानी ! और शोक न कीजिए । ब्राह्मणी तपस्या के लिए और शूद्रों की स्त्रियाँ औरों की सेवा करने के लिए पुत्र उत्पन्न करती हैं । पर आपकी तरह तत्रानियाँ इसी लिए गर्भ धारण करती हैं कि हमारा पुत्र युद्ध में मरेगा। यह सुन कर गान्धारी रथ पर सवार हो गई । शोक तो उन्हें बेहद था; पर मुँह से कुछ और नहीं कहा। उस समय धर्मराज से धृतराष्ट्र बोले :- __ हे युधिष्ठिर ! मरे हुए लोगों में जो अनाथ हैं, या जिनका अमिहोत्र सञ्चित नहीं है, उनकी विधि-पूर्वक मृतक-क्रिया करनी होगी। और जिन लोगों को जानवर खींचे लिये जा रहे हैं उनका भी क्रिया-कर्म करना होगा, जिसमें उन्हें अच्छी गति मिले। धृतराष्ट्र की आज्ञा पाते ही युधिष्ठिर ने नौकरों और साथियों से कहा :- तुम शीघ्र ही वीरों का प्रेत-कार्य करो। धर्मराज की आज्ञा पाते ही सब लोग अगर, चन्दन, घी, काठ और तरह तरह की
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