पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३३३

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दूसरा खण्ड] पाण्डवों का एकाधिपत्य ३०१ हो कर काठ और अनेक प्रकार की सुगन्धित चीजों से चिता बनाई । फिर विदुर और युधिष्ठिर ने भीष्म को अच्छे अच्छे रेशमी वस्त्रों से ढक दिया और कोई पाण्डव छत्र लेकर, कोई चवर लेकर, यथास्थान खड़ा हो गया। कौरव लोग नियमानुसार श्राद्ध और हवन करने तथा ब्राह्मण लोग सामवेद का गान करने लगे। इसके बाद भीष्म का शरीर चिता पर रख दिया गया। उसके ऊपर चन्दन, काठ, अगर, कपूर आदि सुगन्धित चीजें रक्खी गई। फिर चिता में आग लगा दी गई। इस तरह उनकी अन्त्येष्टि- क्रिया समाप्त करके कौरव लोग चिता की बाई तरफ से ऋषियों के साथ गङ्गा जी के किनारे गये और वहाँ भीष्म के लिए जलाञ्जलि देने लगे। धृतराष्ट्र के तर्पण आदि कर चुकने पर धर्मराज युधिष्ठिर बड़ी व्याकुलता से उनको आगे करके गङ्गा जी से बाहर निकले । उस समय वे रो कर घायल हाथी की तरह जमीन पर गिर पड़े। यह देख कृष्ण का इशाग पाकर भीमसेन ने उनको तुरन्त उठाया और कृष्ण यह कह कर कि-महाराज! धीरज धरिए-उनको समझाने लगे। धम्र्मराज को प्राय: बेहाश देख कर अर्जुन आदि पाण्डव शोक करते हुए उनके चारों तरफ़ बैठ गये । पुत्रों के शोक से दुखी प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र युधिष्ठिर की यह अवस्था जान कर कहने लगे :- धर्मराज ! जमीन पर लोटने का यह समय नहीं। उठो और अपना कतव्य पालन करो। क्षत्रिय-धर्म के अनुसार तुमने यह साम्राज्य जीता है । इसलिए भाइयों और मित्रों के साथ उसे भोग करो। तुम्हारे शोक करने का इम समय तो कोई कारण भी नहीं । हाँ, हमारे और गान्धारी के सौ पुत्र, स्वप्न में पाये हुए धन की तरह, खा गये हैं। इसलिए यदि हम लोग शोक करें तो ठीक भी है। हमने दूरदर्शी विदुर की बात नहीं मानी; इसी लिए हमें इस शोक-सागर में डूबना पड़ा। अतएव तुम शोक त्याग कर हमारी तरफ़ देखो। बुद्धिमान् धृतराष्ट्र की यह बात सुन कर भी युधिष्ठिर कुछ न बोले । तब महात्मा कृष्ण ने उनको बहुत उदास देख कर कहा :- हे महाराज ! परलोक गये हुए मनुष्यों के लिए अधिक शोक करने से वे बड़े दुखी होते हैं। इसलिए अब उठ कर किमी बड़े दक्षिणावाले यज्ञ की तैयारी कीजिए । सोमरस से देवताओं को, अमृत से पितरों को, अन्न और जल से अतिथियों को और जितना माँगें उससे अधिक धन देकर दरिद्रों को तृप्त कीजिए । महात्मा भीष्म की कृपा से सारा राजधर्म आप सुन चुके हैं। इसलिए आपको मूढ़ों की तरह काम न करना चाहिए । अब पूर्व-पुरुषों की तरह उत्साह और दृढ़ता के साथ राज कीजिए। कृष्ण की बात समाप्त होने पर युधिष्ठिर ने कहा :- __ हे वासुदेव ! हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम हमको बहुत चाहते हो। पर महावीर कर्ण और महात्मा भीष्म के मर जाने से हमें किसी तरह शान्ति नहीं मिल सकती । अब तुम ऐसा उपाय बताश्री जिसके करने से हमें इन घोर पापों से छुटकारा मिले और हमारा मन पवित्र हो । इस तरह धर्मराज को फिर दुख करते देख व्यासदेव ने कहा :- बेटा ! मालूम होता है कि तुम्हारी बुद्धि अब भी डावाँडोल हो रही है। अब भी तुम बालकों की तरह मोह में आ जाते हो। तुम्हारी बातें सुन कर जान पड़ता है कि पितामह ने इतने दिन तक तुमको व्यर्थ ही उपदेश दिया। तुम तो सब बातों के प्रायश्चित्त जानते हो। इसलिए वृथा शोक न करके जिस काम से पापों का नाश हो वही काम करो। राजा के लिए .यज्ञ से बढ़ कर और कोई काम नहीं। अश्वमेध किसी यज्ञ से कम नहीं । इसलिए तुम्हें यही यज्ञ करना चाहिए। यह सुन कर युधिष्ठिर ने कहा :-