पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३३४

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३०२ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड भगवन् ! यह हम जानते हैं कि अश्वमेध यज्ञ करने से राजा लोग पवित्र हो जाते हैं। किन्तु इस समय उसे करना हमारे लिए सहज नहीं । इस घोर युद्ध के बाद हमारे पास अब बहुत थोड़ा धन रह गया है। हमारे मित्र राजा लोग भी बड़ी दीन अवस्था में हैं। इस दशा में उनसे भी कुछ नहीं माँग सकते । और, धन देना ही अश्वमेध यज्ञ की सबसे बड़ी बात है। इसलिए आप ही बताइए कि इस समय हम क्या करें। तब कुछ देर सोच कर महर्षि वेदव्यास ने कहा :-- बेटा ! तुम चिन्ता न करो। यह ठीक है कि इस समय तुम्हारा खजाना खाली है। किन्तु उसे शीघ्र ही भर देने का उपाय हम बताये देते हैं। किसी समय महाराज मरुत न हिमालय पर बड़ा भारी यज्ञ किया था। उस समय उन्होंने ब्राह्मणा का इतना अधिक धन दिया था कि वे वह सब धन न ल जा मक और वहीं तोड़ देने को मजबूर हुए। सोने का वह ढेर अब तक वहाँ पड़ा है। इस समय उसे ले आने से तुम्हारा यज्ञ सहज ही में हो सकेगा। ___ भगवान् व्यास के इस तरह भरोसा देने पर धर्मराज बन्धु वियोग का दुःख भूल कर बोले :- हे पितामह ! अनन्त धन पाने का जो उपाय आपने हमें बताया है उसके द्वारा शीघ्र ही धन इकट्ठा करके हम यज्ञ करेंगे। महात्मा युधिष्ठर की यह बात समाप्त होते ही महर्षि लोग सबके सामने वहीं अन्तर्द्वान हो गये। तब भीष्म, कणे आदि वीरों के पारलौकिक कल्याण के लिए ब्राह्मणों का बहुत सा धन देकर और धृतराष्ट्र को आगे करके युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ हस्तिनापुर लौट आये और धृतराष्ट्र को धीरज देकर राज्य करने लगे। __शत्रुनाश के बाद पाण्डवों का राज्य निरुपद्रव हो गया। इससे वे लोग सुख से राज्य करने लगे। अश्विनीकुमारी की तरह अर्जुन और कृष्ण आनन्दपूर्वक विचित्र वन, पवित्र तीर्थ, पर्वत, गुफा, नदी आदि रमणीय स्थानों में विचरने लगे। बन्धु-बान्धुवों और पुत्रों के नाश से अर्जुन को जो शोक हुआ था उसे कृष्ण तरह तरह की अद्भुत कथायें कह कर दूर करने लगे । एक दिन उन्होंने अर्जुन से कहा :- हे अर्जुन ! धर्म के अनुसार यह राज्य अकण्टक हो कर धर्मराज के हाथ में आया है । धृतराष्ट्र के जो अधर्मी और राज्य-लोलुप पुत्र तुम लोगों को सदा तङ्ग किया करते थे उन्हें किये का फल मिल गया। वे सब इस समय परलोक में हैं। अब राजा युधिष्ठिर तुम लोगों से रक्षित हो कर निनि राज्य करें। यद्यपि हम धर्मराज को उपदेश देने योग्य नहीं तथापि जो जो उपदेश हमने उनको दिये हैं उन सबको उन्होंने मान लिया है। उन्हीं के अनुसार वे व्यवहार भी करते हैं। अब तुम्हारे साथ बैठने उठने के सिवा हमारे यहाँ रहने का कोई प्रयोजन नहीं । इसलिए अब हमको द्वारका लौट जाना चाहिए। तुम्हारे साथ राज्य का सुख भोगने की तो बात ही क्या है, वनवास करके भी हम बड़े प्रसन्न होते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर, महाबली भीम, और सरल-स्वभाव नकुल-सहदेव जहाँ रहते हैं वहाँ भी हमें बड़ा अच्छा लगता है । किन्तु बहुत दिनों से हमने पिता, पुत्र, बलदेव और यादव वंश के अन्य आत्मीय लोगों को नहीं देखा । इसलिए द्वारका जाने की हमारी बड़ी इच्छा है। तुम हमारी बात मान लो और धर्मराज के पास चल कर कहो कि हम द्वारका जाना चाहते हैं। प्यारे मित्र कृष्ण की यह बात सुन कर महा पराक्रमी अर्जुन ने बड़ी मुश्किल से उसे माना। तब कृष्ण और अर्जुन उठ कर धर्मराज के घर गये । वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर मन्त्रियों से घिरे हुए बैठे थे। कृष्ण और अर्जुन को आया देख उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से उनको उचित आसनों पर बिठाया और कहा:-