पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४४

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३१२ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड पशु, पक्षी और पेड़, पौदे आदि देख कर वे लोग बड़े विस्मित हुए। भीड़ देख कर मालूम होता था मानो सारा जम्बुद्वीप युधिष्ठिर की यज्ञशाला में आ गया है । चारों तरफ़ अन्न के पहाड़, घी-दूध की नदियाँ और खाने-पीने की अन्य सामग्री ढेर की ढेर रक्खी हुई थी। मणियों के कुण्डल और सोने की माला पहने हुए हजारों मनुष्य खाने-पीने की वे चीजें बड़े बड़े विचित्र बर्तनों में रख कर ब्राह्मणों को परोसने लगे । एक लाख ब्राह्मणों के भोजन कर चुकने पर एक बार दुन्दुभी बजती थी। इस तरह प्रति दिन सैकड़ों बार दुन्दुभी बजती थी। ___ जब यादव-वीगें के साथ कृष्ण आदि राजा लोग यज्ञ-मण्डप में आये तब युधिष्ठिर के श्राज्ञानुसार भीमसेन उनकी सेवा में नियुक्त हुए। इस समय एक दूत वहाँ आया और नमस्कार करके बोला : महाराज ! महावीर अर्जुन घोड़ा लेकर नगर के द्वार पर आ गये हैं। इस शुभ संवाद से प्रसन्न होकर महाराज युधिष्ठिर ने दूत को बहुत सा धन दिया। दूसरे दिन सबेरे जब वीर अर्जुन नगर से निकले तब नगर-निवासी लोग बड़े आनन्द से चिल्ला कर कहने लगे : हे अर्जुन ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज तुम लौट आये और हमें तुम्हारे दर्शन हुए। श्राज धर्मराज को धन्य है। तुम्हारे सिवा ऐसा और कौन है जो सारी पृथ्वी के राजों को हरा कर घोड़े सहित निर्विन लौट सकता ? ___ प्रजा के ये प्रशंसा-वाक्य सुनते सुनते अर्जुन यज्ञभूमि में पहुँचे। उनको आया जान महाराज युधिष्ठिर और कृष्ण, अन्धे राजा धृतराष्ट्र को आगे करके, मन्त्रियों के साथ उन्हें लाने के लिए आगे बढ़े । अर्जुन ने पहले चचा के पैर छुए। फिर दोनों बड़े भाइयों को यथाविधि प्रणाम किया। इसके बाद कृष्ण और छोटे भाइयों को आलिङ्गन करके वे उनके साथ सुख से बैठ गये। इस समय चित्राङ्गदा और उलूपी के साथ मणिपुर के राजा बभ्रुवाहन वहाँ आये । अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए सब लोगों ने उन्हें नाना प्रकार के धन-रत्न दिये । उन्हें सब लोगों ने ऐस अच्छे मकानों में उतारा जहाँ बड़ी ही मनोहर शय्यायें लगी हुई थीं। तब महात्मा वेदव्यास ने युधिष्ठिर के पास आकर कहा : ____महाराज ! याजक लोग कहते हैं कि यज्ञ का मुहूर्त श्रा पहुँचा । इसलिए तुम आज ही से यज्ञ प्रारम्भ करो। महर्षि के उपदेशानुसार धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उसी दिन दीक्षा ली । यज्ञ करने में निपुण और वेदों को जाननेवाले ब्राह्मण लोग अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ करके विधि के अनुसार अपना अपना काम करने लगे। उन ब्राह्मणों में कोई थोड़ा ज्ञान रखनेवाला न था; सभी साङ्गोपाङ्ग वेदों के ज्ञाता, व्रतपरायण, ब्रह्मचारी और सुवक्ता थे। उन लोगों ने यथाविधि अग्निस्थापन किया। फिर सेोमलता से रस निकाल कर यज्ञ के सब काम शास्त्रानुसार सिलसिलेवार किये। जब यज्ञीय पशु बाँधने के खम्भ गाड़ने का समय आया तब यज्ञ-भूमि में याजकों ने छः बेल के, छः कत्थे के, छः ढाक के, दो देवदार के और एक श्लेष्मातक का खम्भ गाड़ा। इसके बाद भीमसेन ने शोभा के लिए वहाँ सोने के सैकड़ों खम्भ गाड़ दिये । इसके बाद याजकों ने वहाँ सेोने की ईंटों से अठारह हाथ घेरे की एक तिकोनी गरुडाकार वेदी बनाई । उसके दोनों पंख भी सोने के बनाये। फिर चयन-क्रिया हुई । तदनन्तर शास्त्र के अनुसार ऋत्विक् लोगों ने नाना देवताओं के लिए नाना प्रकार के पशु, पक्षी निर्दिष्ट करके उन खम्भों में तीन सौ पशु बाँध दिये । उस घोड़े को भी वहीं बाँध दिया। अनन्तर, यज्ञदीक्षित ब्राह्मणों ने धीरे धीरे सब पशुओं का पाक करके शस्त्र के अनुसार उस घोड़े को