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पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३५

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पहला खण्ड ] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों की जन्म-कथा विचार किये बिना ही आप पर बाण छोड़ दिया। शिकार का नियम ही ऐसा है। फिर क्यों श्राप मुझे अपराधी समझते हैं ? ऋषिकुमार ने कहा-राजन् ! आप धर्मज्ञ होकर भी क्यों इस तरह तर्क करते हैं । अपने बचाव के लिए इस तरह की बातें करना श्रापको शोभा नहीं देता। खैर, कुछ भी हो, आपने मृग जान कर ही मुझे मारा है । इससे ब्रह्महत्या, अर्थात् ब्राह्मण मारने का पाप, आप पर नहीं लग सकता । पर, स्त्री के साथ सुख से विहार करनेवाले मृग पर बाण छोड़ कर आपने बड़ी निठुरता का काम किया है। इससे इस निठुरता का फल आपको जरूर ही भोगना पड़ेगा। हे निर्दय ! आपकी भी मृत्यु रानी के साथ क्रीड़ा करते समय में ही होगी। यह शाप देकर उस ऋषिकुमार ने शरीर छोड़ दिया । उसका प्राणपक्षी शरीर से उड़ गया। इससे पाण्डु को महा दुःख हुआ । दुःख और खेद से वे विह्वल हो उठे। अपनी दोनों रानियों से जाकर उन्होंने सारा हाल कहा । उनके मन में भारी वैराग्य हो पाया । उसी के वेग में उन्होने कहा : हाय ! सदा सुखभाग में लिप्त रहने ही के कारण मेरे मन में वैसा विकार पैदा हुआ। इसी से ऐसा निन्द्य काम करके मैंने शाप पाया। आज से मैं कठोर तपस्या करके अपने दिन बिताऊँगा। ___ यह कह कर उन्होंने अपनी दोनों रानियों से बिदा माँगी। उत्तर में रानियां ने कहा :-- महाराज ! हम भी आपके साथ तपस्या करेंगी । हम भी अपनी सब इन्द्रियों के विकारों को रोक कर वृक्षों की छाल के कपड़े पहनेंगी और फल-मूल खाकर आप ही के साथ पवित्रतापूर्वक सुख के रहेंगी। संसार में जितने दिन रहना है, इसी तरह रह कर एक ही साथ परलोक जायँगी। यदि आप हमें छोड़ जायेंगे तो किसी तरह हम जीती न रहेंगी । इसके अनन्तर महाराज पाण्डु अपने बहुमूल्य कपड़े-लत्ते और दोनों गनियों के भी कपड़े और गहने आदि ब्राह्मणों को देकर बोले : आप लोग हस्तिनापुर लौट जाकर हमारी माता आर्या सत्यवती, राजा धृतराष्ट्र और पिता के तुल्य महात्मा भीष्म से कहिए कि आज से हम विरागी हो गये। अब हम हस्तिनापुर न लौटेंगे । राजा के ऐसे करुणापूर्ण वचन सुन कर नौकर-चाकर लोग हाहाकार करने लगे। बड़े दुःख से वे महाराज पाण्डु से बिदा हुए और हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से सारा हाल कह सुनाया। अपने प्यारे भाई की ऐसी दुःख-कथा सुन कर धृतराष्ट्र विकल हो उठे। बहुत दिनों तक उनका चित्त व्याकुल रहा । बड़ी कठिनता से वे अपने को सँभालने में समर्थ हुए। __ पाण्डु ने अपनी इन्द्रियों को वश में रख कर बहुत दिनों तक घोर तपस्या की। उनके सारे पाप छूट गये। धीरे धीरे वे एक बहुत बड़े ब्रह्मर्षि के तुल्य हो गये। एक बार शतशृङ्ग नाम के पर्वत पर रहनेवाले मुनि लोग भगवान् ब्रह्मा के दर्शन की इच्छा से ब्रह्मलोक जाने की तैयारी करने लगे । इसी समय पाण्डु उन मुनियों के पास आये और उनके साथ चलने की उन्होंने भी इच्छा प्रकट की। मुनियों ने उनको अपने साथ चलने के योग्य न समझा। पर न ले जाने का ठीक कारण उन्होंने पाण्ड से इसलिए न बतलाया कि उससे पाण्ड को दःख होगा। यह सोच कर उन्होंने राह की कठिनाइयों और तकलीफों का वर्णन करके पाण्डु से कहा कि आप हमारे साथ न चलिए। हमारे साथ चलने से आपको बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा । परन्तु पाण्डु ने असल बात समझ ली । वे जान गये कि हमारे कोई सन्तान नहीं हैं; और नि:सन्तान आदमी सशरीर स्वर्गलोक नहीं जा सकता । इसी से मुनि लोग हमें अपने साथ ब्रह्मलोक को नहीं ले जाना चाहते । बहुत उदास होकर वे अपनी दोनों रानियों के पास आये और सन्तान न होने के दुःख से