दूसरा खण्ड] यदुवंश-नाश ३२७ करते थे उन्हीं के दुराचरण के कारण यदुकुल का नाश हुआ है। पर इसमें उन्हीं का क्या दोष है ? ब्रह्मशाप ही इसका मूल कारण है । जिन कृष्ण ने महाबली और पराक्रमी शत्रुओं के आक्रमण से द्वारका नगरी की बार बार रक्षा की उन्होंने भी इस समय यदुकुल का नाश होते देख कर भी कुछ परवा न की। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल जाने पर तुम्हारे पौत्र परीक्षित को जिन्होंने जीवन-दान दिया, उन्हीं ने इस समय अपने कुटुम्बियों की रक्षा न की । पुत्र, पौत्र, मित्र और भाइयों के मरने पर उन्होंने हमारे पास आकर कहा :- पिता ! यदुकुल का श्राज नाश हो गया। हमने अर्जुन के पास दूत भेजा है। उनके आने पर जैसा वे कहें करना। यह कह कर और बालकों तथा स्त्रियों के साथ हमें यहाँ रख कर वे न मालूम कहाँ चले गये । तब से हम दिन रात बलदेव, कृष्ण और अपने वंशवालों की याद करके भूखे प्यासे दिन बिताते हैं। अब हम जीना नहीं चाहते । इसलिए तुम अपने मित्र के इच्छानुसार काम करो। वसुदेव की बातों से अत्यन्त व्याकुल होकर अर्जुन ने कहा :- मामा ! हम इस कृष्णशून्य राजधानी को किसी तरह नहीं देख सकते । द्रौपदी और हमारे भाई यदुवंश के नाश होने का वृत्तान्त सुन कर बहुत ही शोकाकुल होंगे। साफ मालूम होता है कि अब हम लोगों का भी यह लोक छोड़ने का समय आ गया है। इसलिए और अधिक दिन रह कर क्या करेंगे ? हम यादववंश के बालकों और स्त्रियों को लेकर शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ जायेंगे। इसके बाद अर्जुन ने मन्त्रियों से कहा :- ___महाशयो ! हम रानियों और बालकों को लेकर इन्द्रप्रस्थ जाते हैं। नगर-निवासियों समेत तुम लोग भी वहाँ आ सकते हो । कृष्ण ने सुन रक्खा था और हमसे सदा कहा करते थे कि यह नगर थोड़े ही दिनों में समुद्र में डूब जायगा। इसलिए हम यहाँ से आज के सातवें दिन चला जाना चाहते हैं; सवारियाँ तैयार रखना। ___ अर्जुन का अभिप्राय समझ कर सब लोग जल्दी जल्दी तैयारी करने लगे। शोक से व्याकुल अर्जुन ने वह रात कृष्ण के घर में किसी तरह काटी। दूसरे दिन सबेरे महात्मा वसुदेव ने योग साध कर शरीर छोड़ दिया और स्वर्ग का रास्ता लिया। तब अर्जुन ने उनकी मृत देह को अरथी में रख कर अन्तःपुर से निकाला। द्वारका-निवासी शोक करते हुए पीछे पीछे चले। अन्त:पुर की स्त्रियों ने माला और गहने उतार कर फेंक दिये, बाल खोल डाले और छाती कूट कूट कर रोने लगीं। जीते में जिस स्थान को वसुदेव बहुत पसन्द करते थे वहीं पहुँच कर भाई-बन्दों ने उनका प्रेतकार्य किया। इसके बाद उनकी स्त्रियाँ उनको प्रज्वलित चिता में रक्खा देख उसके ऊपर जाकर बैठ गई। उस चिता के जलने का शब्द सामवेदियों के वेद पढ़ने और उपस्थित लोगों के रोने की आवाज़ से और भी बढ़ गया। वह सारा स्थान ध्वनि प्रतिध्वनि से गूंज उठा। अन्त में वन आदि यदुवंशी कुमारों और स्त्रियों के साथ अर्जुन ने वसुदेव को जलाअलि दी। इस तरह वसुदेव का प्रेतकार्य समाप्त करके परम धार्मिक अर्जुन उस स्थान को गये जहाँ ब्रह्मशाप के कारण मूसल से मरे हुए यादववीर अपने दुराचार के भयङ्कर परिणाम को प्राप्त हुए थे। उस घोर हत्याकांड को देख कर वे बड़े दुखी हुए। बड़े से लेकर छोटे तक सबके क्रिया-कर्म की व्यवस्था करके उन्होंने बलदेव और कृष्ण के मृत देह की खोज की और उनका भी अग्नि-संस्कार किया।
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