पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३६६

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३३४ सचित्र महाभारत .[दूसरा खण्ड इसके उत्तर में चारों ओर से तरह तरह के कण्ठ-स्वर सुनाइ दिये :- हम कणे हैं, हम भीम हैं, हम अर्जुन हैं, हम नकुल हैं, हम सहदेव हैं, हम द्रौपदी हैं :- इसी तरह अपने सारे कुटुम्बियों और अनेक बन्धु-बान्धवों ने अपना अपना परिचय दिया। तब धर्मराज महा अधीर होकर सोचने लगे। अहा ! दैव की गति बड़ी विलक्षण है; कुछ समझ में नहीं आती ! क्या हमारे भाइयों और द्रौपदी ने इतने दुष्कर्म किये थे कि वे लोग नरक में डाले गये ! पापी दुर्योधन को तो दल-बल-सहित हमने इन्द्रलोक में देखा, और परम धार्मिक होने पर भी अपने भाइयों को हम नरक में पड़ा देख रहे हैं ! क्या हम स्वप्न देख रहे हैं ? अथवा क्या हमें भ्रम हो गया है ? इस तरह शोकाकुल चित्त से युधिष्ठिर बड़ी देर तक चिन्ता करते रहे। धर्मराज का अविचार और अन्याय समझ कर उन्हें बड़ा क्रोध आया। इस पर उन्होंने उस देवदूत से कहा :- महाशय ! तुम जिन ले.गों के दूत हो उनसे जाकर कहो कि हम यहीं रहेंगे। हमको पाकर हमारे दुखी आत्मीय जन बड़े प्रसन्न हुए हैं । अतएव हमारे लिए यहीं स्वर्ग है। ____धर्मराज की यह बात सुन कर देवदूत ज्यों ही अन्तर्धान हुश्रा त्यों ही वहाँ का सारा अन्धकार दूर हो गया और धर्म अदि देवता वहाँ आ पहुँचे । उस समय वहाँ का भयङ्कर दृश्य एक-दम दूर हो गया और वह दुःखदायी आर्तनाद न जाने कहाँ चला गया । तत्काल ही वहाँ सुख-कर सुगन्धित वायु बहने लगी। तब देवराज इन्द्र युधिष्ठिर से बोले :-- हे धर्मराज ! सब देवता तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हैं। अब तुम्हें और कष्ट भोगने की आवश्यकता नहीं। पाप और पुण्य प्राय: सभी करते हैं। इसलिए, चाहे थोड़े समय के लिए हो चाहे बहुत के, चाहे आगे हो चाहे पीछे, सभी को कुछ न कुछ नरक-यन्त्रणा भोग करनी पड़ती है। तुमने अधिक पुण्य किया है। इसलिए स्वर्ग का सुख भोगने के पहले केवल एक बार थोड़ी देर के लिए तुम्हें नरक देखना पड़ा। तुम्हारी पत्नी और भाइयों ने परम सिद्धि प्राप्त की है । नरक से छूट कर वे सभी स्वर्ग गये हैं। ___यह देखो, निकट ही देवनदी मन्दाकिनी बह रही है। उसके पवित्र जल में स्नान करते ही तुम्हारे शोक, सन्ताप और वैर आदि मानुषिक भाव एकदम दूर हो जायेंगे। इन्द्र की यह बात सुनते ही देवताओं के साथ पुण्यात्मा युधिष्ठिर शीघ्र ही उस त्रिलोक-पावनी नदी के किनारे गये और उसके पवित्र जल में स्नान किया । उसमें स्नान करते ही युधिष्ठिर की मनुष्य- देह न मालूम कहाँ चली गई । उसके बदले उन्हें दिव्य मूर्ति प्राप्त हुई। इसके साथ ही उनके अन्तःकरण से शोक और वैरभाव एक-दम दूर हो गया। तब वे देवर्षियों की की हुई स्तुति सुनते सुनते देवताओं के साथ वहाँ गये जहाँ उनकी पत्री, भाई और धृतराष्ट्र के पुत्र क्रोधरहित होकर बड़े सुख से रहते थे। समाप्त