पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/४५

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५ पहला खण्ड ] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों का बालपन करनी पड़ी थी; तिस पर भी दूसरों की सेवा करने की हमारी इच्छा नहीं हुई। उस दिन प्राणों से भी अधिक प्यारे पुत्र अश्वत्थामा के साथ किये गये छल और अपमान को देख कर हमें सहसा अपने साथी द्रुपद की याद आई। __हमने सुना कि द्रुपद इस समय गजा हैं । तब उनकी प्रतिज्ञा और प्रीति की बातें याद करके हम लोगों को बहुत धीरज हुआ। हमने अनुमान किया कि द्रपद हमारा सारा दुख-दरिद्र दूर कर देंगे। यह सोच कर स्त्री और पुत्र-सहित प्रसन्नतापूर्वक हम पाञ्चाल देश को चले। बालपन की बातें याद करते करते हम लोग पाञ्चाल देश की राजधानी में पहुंचे। पहुँचते ही राजसभा में जा उपस्थित हुए। वहाँ द्रुपद को देखते ही बालपन के स्वभाव के कारण हमने उन्हें बड़े प्रेम से गले लगाया। मिलने के समय हमारा कण्ठ गद्गद हो पाया-गला रुक सा गया । उसी दशा में हमने कहा : देखो, तुम्हाग बाल-सखा द्रांगण आ गया। परन्तु द्रपद ने हमाग अपमान किया। वह इस तरह हमसे बोला जैसे कोई नीच आदमी से बोलता है। उसने कहा : हे ब्राह्मण ! तुमने क्या समझ कर हमें अपना सखा कहा ? इतनी अशिष्टता क्यों ? भला इस तरह का भी बुरा व्यवहार कोई किसी के साथ करता है ? एक ही जगह एक अवस्था में रहने से मित्रता हो सकती है; परन्तु पहली अवस्था न रहन से पहले की मित्रता भी नहीं रहती। अवस्था में भेद हो जाने से मित्रता में भी भेद हो जाता है । पण्डित के साथ मूर्ख की, धनी के साथ दरिद्र की, राजा के साथ साधारण प्रजाजन की मैत्री कैसे हो सकती है ? मुझे तो याद नहीं कि मैंने तुमसे कभी कोई प्रतिज्ञा की हो। परन्तु तुम इतनी दूर से जब आये हो तब इच्छा हो तो भोजन करके जाना। हे भीष्म ! द्रुपद को हम अपना भाई, अपना मित्र, अपना बाल-सखा समझ कर उसके यहाँ गये थे। परन्तु जब उसने इस तरह हमें, दुग्दुराया, इस तरह का अनुचित व्यवहार हमारे साथ किया, तब हम क्रोध से जल उठे । इम अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उसी क्षण वहाँ से हम चल पड़े फिर एक पल भी वहाँ हम नहीं ठहरे । द्रपद से किस तरह बदला लें-उसे किस तरह नीचा दिखावें-यही सोच कर हम यहाँ आये हैं और कृपाचार्य के यहाँ स्त्री-पुत्र सहित ठहरे हैं। आपको हमने अपनी सारी कथा कह सुनाई । कहिए, अब आपकी क्या आज्ञा है ? भीष्म ने कहा-हे प्रिय : धनुप की डोरी को खोल दीजिए.-प्रत्यञ्चा को धन्वा से उतार डालिए । कृपा करके आप यही आराम से रहिए । हमारे बड़े भाग्य से आप इस समय यहाँ आये हैं। इस गज्य में जो कुछ सुख-सामग्री है उसे आज से आप अपनी ही समझिए । भीष्म के इस शिष्टाचार से द्रोण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पाण्डु और धृतराष्ट्र के पुत्रों को अस्त्रशस्त्र चलाने की शिक्षा देना स्वीकार किया। वे बोल : गजकुमार यदि हमें प्रसन्न रक्खेंगे तो हम उनको उत्तम शिक्षा देंगे। एक समय जब महर्षि परशुराम ने ब्राह्मणों को अपना सारा धन दे डालने का सङ्कल्प किया था तब हमने उनके पास जाकर उनसे धन माँगा । हमारी प्रार्थना को सुनकर उन्होंने कहा : __ हे तपस्वी ! हमारे पास जितनी सम्पत्ति थी हमने पहले ही दे डाली है। इस समय केवल हमारे अनमोल अस्त्र-शस्त्र और हमारा शरीर बाक़ी है । इनमें से तुम्हें क्या चाहिए, कहो। __ हमने परशुराम से प्रार्थना की कि आप हमें अपने अस्त्र-शस्त्रों का विधिपूर्वक चलाना सिखला दीजिए । हम आपसे यही भिक्षा माँगते हैं। परशुराम ने हमें अच्छी तरह धनुर्वेद की शिक्षा दी । उसमें कोई कसर या कुञ्जी नहीं रक्खी। उनके पास जितने दिव्य दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे वे भी सब उन्होंने हमें दे दिये । इससे हम अापके राजकुमारों को आपके वंश के योग्य अच्छी से अच्छी शिक्षा दे सकेंगे। फा०४