पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/४६

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सचित्र महाभारत [पहला खण्ड भीष्म ने द्रोणाचार्य का बड़ा सत्कार किया। कुछ समय तक उनका राज्य-भवन में रखा। तदनन्तर बहुत सा धन देकर गजकुमारों को उनके सिपुर्द किया। उनके रहने के लिए धन-धान्य से पूर्ण एक बहुत अच्छा घर भी दिया। पाण्डव और धृतराष्ट्र के पुत्र द्रोणाचार्य को यथायोग्य प्रणाम करके जब उनसे शिक्षा लेने गये तब द्रोण बोले : __ हे शिष्य ! हम तुम्हें सब विषयों की उत्तम शिक्षा देंगे। तुम इस बात को स्वीकार करो कि शिक्षा सम्पूर्ण होने पर तुमको हमारा एक मनोवाञ्छित काम करना होगा। यह सुन कर और मब राजकुमार तो चुपचाप खड़े रहे, पर अर्जुन ने बड़े उत्साह से गुरु की बात अङ्गीकार की। उन्होंने कहा-हे आचार्य । मुझे आपकी श्राज्ञा मान्य है । आपका मनोवाञ्छित काम करने में मैं कोई बात उठा न रागा। शिप्य अर्जुन का उत्साह-भरा उत्तर सुन कर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए और उनकी शिक्षा की तरफ़ औरों की अपेक्षा अधिक ध्यान देने लगे। द्रोणाचार्य के पास जब सब राजकुमार पढ़ने लगे तब सारथि के द्वारा पाले गये कुन्ती के पुत्र वसुसेन भी उनके शिष्य हुए। वे भी गजकुमारों के साथ अस्त्र-शस्त्र चलाने की विद्या द्रोण से सीखने लगे। इन्हीं वसुसेन का नाम आगे चल कर कर्ण पड़ गया। भुज-बल में, उद्योग में, धनुर्वेद की शिक्षा में अर्जुन ने बड़ी योग्यता प्राप्त की । धीरे धीरे वे प्राचार्य द्रोण के समान धनुर्धर हो गये। केवल कर्ण ही को अर्जुन की बराबरी करने का साहस हुआ, और किसी को नहीं । द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा भी पिता के पास सब गजकुमारों के साथ शिक्षा पाने थे। परन्तु अर्जुन अश्वत्थामा को भी मात करने पर उतारू हो गये। वे अश्वत्थामा से भी बढ़ जाने का यत्न करने लगे। पिता द्रोण को यह बात नागवार हुई । इससे उन्हाने एक युक्ति निकाली। प्रति दिन सबेरे पढ़ना आरम्भ करने के पहले वे प्रत्येक शिष्य को छोटे मुँह का एक एक कमण्डल. देकर नदी से जल मँगाने लगे। परन्तु अश्वत्थामा को चौड़े मुँह की एक कलशी देने लगे। मतलब यह कि अश्वत्थामा जल भर कर ओगे से पहले लौट आवे और अकेले में कुछ अधिक पढ़ ले। अर्जुन इस बात का ताड़ गये। प्राचार्य की चालाकी वे समझ गये। वरुणास्त्र द्वारा अपना कमण्डल झट पट भर कर वे अश्वत्थामा के साथ ही गरु के पास लौट आने लगे। इससे उन्होंन अश्वत्थामा के बराबर ही शिक्षा पाई। किसी भी बात में अश्वत्थामा उनसे बढ़ न जाने पाये। एक दिन सायङ्काल अर्जुन भोजन करते थे कि हवा के झोंके से दिया बुझ गया। इससे उन्हें अँधेरे ही में भोजन करना पड़ा। भोजन कर चुकने पर उन्होंने सोचा कि आज मैने अँधेर ही में भोजन कियाअँधेरा भी ऐसा कि हाथ मारा नहीं सूझता था। परन्तु अभ्यास के कारण हाथ हर बार थाली में अन्न ही पर पड़ता था। यही नहीं, किन्तु कोर भी ठीक मुँह के भीतर ही जाता था, कभी इधर उधर नहीं होता था। इससे अर्जुन के मन में अभ्यास की महिमा अच्छी तरह जम गई। वे अंधेरे में बाण चलाने का अभ्यास करने लगे। अर्थात् निशाने का बिना देखे ही, अँधेरे में, बाण चलाकर उसे बेधने का यत्र करने लगे। रात को धनुष का टङ्कार सुन कर द्रोण को यह बात मालूम हो गई। धनुर्विद्या के अभ्यास में अर्जुन का इतना अधिक उत्साह देख कर द्रोण बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को गले से लगाकर कहा : पुत्र ! हम तुम्हें ऐसी अच्छी शिक्षा देंगे जिसमें तुम पृथ्वी में सबसे बड़े योद्धा हो-जिसमें कोई भी तुम्हारी बराबरी न कर सके। इसके अनन्तर हाथी, घोड़े और रथ पर सवार होकर युद्र करने की शिक्षा द्रोणाचार्य ने देना प्रारम्भ किया। तलवार, गदा, तोमर, प्रास और शक्ति आदि जितने मुख्य मुख्य शस्त्र थे उन सबका चलाना भी वे सिखलाने लगे।