पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/५८

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सचित्र महाभारत [पहली खरड __ मन्त्री कणिक का उपदेश और पुत्र दुर्योधन की दुःख-भरी विनती सुन कर धृतराष्ट्र का चित्त डोल उठा। वह डगमगाने लगा। परन्तु अन्याय और अधर्म के डर से उनसे कुछ करते धरत न बना। मन की बात मन ही में रख कर शान्त रहना पड़ा। परन्तु दुर्योधन चुप रहनेवाले न थे। मित्र कर्ण और मामा शकुनि से सलाह करके वे फिर धृतराष्ट्र के पास आकर बोल : हे तात ! यदि आप किसी तदबीर से -किसी युक्ति से-पाण्डवों का कुछ दिन के लिए कहीं बाहर भेज दें तो जो यह विपद हम लोगों पर आनेवाली है उससे बचने का कोई उपाय किया जा सकता है। धृतराष्ट्र कुछ देर तक न जाने क्या सोचते रहे । सेाच साच कर आपने कहा : देखा पुत्र ! भाई पाण्डु बड़े धर्मात्मा थे । राज्य पाने पर अपने वन्धु-बान्धवों कं, और विशेष करकं हमारे, साथ कभी उन्होंने बुरा व्यवहार नहीं किया । हमको उन्होंने सदा ही स्नेह की दृष्टि से देखा। राज्य से सम्बन्ध रखनेवाली सारी बातें प्रति दिन वे हमसे कहते थे और हमारी सलाह से सब काम करते थे। जो काम करने की आज्ञा हम न देते थे उसे कभी न करते थे। उनके पुत्र युधिष्ठिर उन्हीं की तरह धर्मात्मा हैं। पिता के राज्य के वही अधिकारी हैं। इसके सिवा उनके सहायक भी बहुत हैं। यदि हम उन्हें बलपूर्वक राज्य से दूर करने की चेष्टा करेंगे-यदि हम ज़बरदस्ती उन्हें गज्यसिंहासन से अलग रखने का यत्र करेंगे तो प्रजा और पुरवासी जरूर ही हम लोगों के प्राण ल लेंगे। ___ दुर्योधन ने कहा-हं पिता ! आप जा कहते हैं सब सच है। परन्तु आदर-सम्मान करके और धन-धान्य देकर प्रजा और पुरवासियों को हम प्रसन्न कर सकते हैं, उन्हें अपनी तरफ़ कर सकते हैं । फिर हम पाण्डवों का कोई अनिष्ट भी नहीं करना चाहतं । आप कोई अच्छी युक्ति सोच कर कुछ दिन के लिए उन्हें वारणावत् नगर को भेज दीजिए। इस समय सारा धन और सारे मन्त्री हमारे ही अधीन हैं। इसी बीच में, किसी उचित उपाय से पुरवासियों को वश में करके, राज्य हम अपने हाथ में कर लेंगे। फिर कोई सन्देह की बात न रह जायगी। तब पाण्डवों को फिर राजधानी में बुला लेंगे। धृतराष्ट्र ने कहा-हे दुर्योधन ! तुमने जो बात कही वही हमने भी कई बार मन ही मन सोची है। परन्तु इस तरह का अन्याय करना महा पाप है, यह विचार कर हमने अपने मन की बात किसी से नहीं कही। इसे जाने दो। पाण्डवों को बाहर भेजने की भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर आदि कोई सलाह भी तो न देंगे। इन सबकी इच्छा के प्रतिकूल किस तरह हम उन्हें राजधानी से हटा सकेंगे। दुर्योधन बोले-भीष्म तो पाण्डवों का और हम लोगों का बराबर प्यार करते हैं। हम सब पर उनकी एक सी प्रीति है। अश्वत्थामा हमारे पक्ष में है; इससे द्रोण और कृप को भी लाचार होकर हमारी ही तरफ़ होना पड़ेगा। रहे विदुर, सा वे हमारे अर्थ के-हमारं धनधान्य के जाल में बँधे हुए हैं। तथापि, सुनते हैं, पाण्डवा ने छिपे छिपे उन्हें अपने हाथ में कर रक्खा है। कुछ भी हो, अकेले विदुर हमारा कोई अकाज नहीं कर सकते। इससे अब आप और व्यर्थ शङ्का सन्देह न करें। पाण्डवों के कारण रात का हमें नींद नहीं आती। निद्रा का नाश करनेवाली शोक-रूपी आग में हम जला करते हैं। हमारी सलाह मान कर इस आग में जलने से आप हमें बचाइए । और अधिक देरी न कीजिए। ___ इस बातचीत के बाद धृतराष्ट्र मन ही मन इन सब युक्तियों का विचार करने लगे। वे सोचने लगे कि जिस तरकीब से दुर्योधन राज्य को अपने हाथ में करना चाहते हैं उसमें क्या क्या गुण-दोष हैं। कामयाबी की आशा है या नहीं। उधर दुर्योधन अपने काम की सिद्धि की फिक्र में लगे। धन देकर और हर तरह से सम्मान करके प्रजा को अपनी मुट्ठी में कर लेने का वे यत्न करने लगे। जब देखा कि भव अवसर अच्छा है-लोग अब हमारे अनुकूल भालूम होते हैं-तब उन्होंने एक चाल चली । एक