पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/५७

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पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का पाण्डवों पर अत्याचार कोई बात अज्ञात नहीं। आप हमसे इस समय यह बतलाइए कि हम राज-धर्म के अनुसार पाण्डवों के साथ किस तरह का व्यवहार करें जो हमारे मन का सन्देह दूर हो जाय। कौन सी तदबीर की जाय जिसमें पाण्डवों से हमारे पुत्रों को कुछ भी डर न रहे। कणिक विलक्षण बुद्धिमान मन्त्री थे। उन्होंने कहा : महाराज ! शत्रुओं से सचमुच ही आपको बड़ा डर है। उस डर को पूरं तौर पर दूर करने के लिए पाण्डवों का जड़ से नाश कर देना चाहिए। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं। शत्रु को कभी निर्बल न समझना चाहिए। अशक्त और कमजोर समझ कर शत्रु की उपेक्षा करने से पीछे पछताना पड़ता है। इससे जिस समय शत्र को दुर्बल और अशक्त अवस्था में पावे उसी समय उसे दूर कर दे। उसका नाश करना ही उस समय उचित है। राजनीति का यही नियम है। इसी नियम को ध्यान में रख कर किस तरह की काररवाई पाण्डवों के साथ करनी चाहिए, इसका निश्चरा आप अपने पुत्रों की सलाह से करें। परन्तु, अपने भतीजों के साथ अन्याय करने के लिए धृतराष्ट्र के मन न गवाही न दी । भतीजों पर धृतराष्ट्र की एक तो यों ही ममता थी, फिर युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई सब बातों में धर्मपरायण थे। कभी कोई अधर्म का काम उनके हाथ से न होता था। इस कारण उनके नाश का जो कठोर उपदेश मन्त्री ने दिया उस धृतराष्ट्र न अङ्गीकार कर सके। उसके अनुसार पाण्डयों पर अत्याचार करने को उनका जी न चाहा । तथापि आगा-पीछा सोच कर उन्हें दुःग्य जरूर हुआ। वे शोक से व्याकुल हो उठे। ____इधर पाण्डवों का सब गुणों से पूर्ण देख कर पुरवासी लोग सदा ही उनकी प्रशंसा करत थे । सभा में, या और जहाँ कहीं चार आदमी इकट्ठ होते थे, सब लोग पाण्डवों के राज्य पान ही के विषय में बातचीत करते थे । सब एक स्वर से कहते थे : ____ पाण्डवों में जेठे भाई युधिष्ठिर पूरे महात्मा हैं। वे सब तरह राज्य पाने के योग्य हैं । राजा धृतराष्ट्र जन्म ही से अन्धे है। इस कारण वे पहले ही राज्य के अधिकारी न थे। अब भी क्या समझ कर वे राज-सिंहासन नहीं छोड़ते ? भीष्म तो राज्य लेंग ही नहीं; क्योंकि उन्होंने वैसा न करने की प्रतिज्ञा की है। और उनकी प्रतिज्ञा कभी झूठ नहीं हो सकती। इससे हम लोग धर्मात्मा युधिष्ठिर ही को राजा बनावेंगे। वे सत्यवादी और दयालु हैं। भीष्म और धृतराष्ट्र के साथ वे ज़रूर ही अच्छा व्यवहार करेंगे-ज़रूर ही वे उनका आदर-सम्मान करने में कसर न करेंगे। ये सब बातें धीरे धीरे दुर्योधन के कान तक पहुँची। सुन कर दुर्योधन का चित्त चञ्चल हो उठा। ईर्ष्या-द्वेष से हृदय जलने लगा । झट पट आप धृतराष्ट्र के पास पहुँचे और बोले : हे पिता ! पुरवासी लोग आपका और भीष्म का तिरस्कार करके युधिष्ठिर को राज्य देने की सलाह कर रहे हैं। सुनते हैं, भीष्म भी इस बात को पसन्द करते हैं। वे कहते हैं, हम राज्य के भूखे नहीं; हमें राज्य न चाहिए। हे महाराज ! ये सब कठोर और अनुचित बातें सुन कर मुझका महा दुःख हो रहा है। अपने भाइयों में जेठे होने पर भी पहले भी एक बार आपको राज्य से हाथ धोना पड़ा था। आपको राज्य से वञ्चित रख कर पुरवासियों ने पाण्ड को राजा बनाया था। अब दैवयोग से जो आपको राज्य प्राप्त हुआ है तो फिर भी आप पर अन्याय करने का विचार हो रहा है। यदि इस समय पाण्डु के पुत्रों को राज्य मिल जायगा तो फिर सदा के लिए उन्हीं के वंशवाले राजा होते रहेंगे । आपके पुत्र और पौत्र राजवंश के होकर भी हीन और तुच्छ समझे जायँगे। दूसरे का दिया हुश्रा टुकड़ा खानेवाले सदा ही मरक के समान दुःख भोग करते हैं । यह आप जानते ही हैं। इससे कोई ऐसी तदबीर कीजिए जिसमें इस दुःख से हम लोग बचें। उससे हमारा उद्धार करना ही आपका धर्म है। इस विषय में उदासीन होनाचुपचाप बैठे रहना-अच्छा नहीं । चुप बैठने से अब निस्तार नहीं।