पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सचित्र महाभारत [ पहला खण्ड मन्ध्या से लकर प्रात:काल तक सारी रात यक्ष, गन्धर्व और गक्षसों के लिए है। रात भर वे जहाँ चाहं जायँ और जो चाह करें। बाकी बचा हुआ समय, अर्थात् माग दिन, आदमियों के लिए है। जो कुछ उन्हें करना ही दिन ही में करना चाहिए । फिर, तुमने क्यों हमारी क्रीड़ा में विघ्न डाला ? तुम बड़े मुर्ख मालूम होत हो । बहुत जल्द हमारे सामने उपस्थित होकर यहाँ आने का कारण बतलायो। ऐस कठोर वचन सुनकर अर्जुन का क्रोध हो पाया। उन्होंने कहा : हे घमण्डी ! समुद्र, पर्वत और नदी तट पर कभी किसी का अधिकार नहीं । मनुष्य निर्बल है। इसी से लाचार होकर तुम्हारा बनाया हुआ यह अनोखा नियम उसे पालन करना पड़ता है। पर हम लोग उस तरह के मनुप्य नहीं । हम गङ्गाजी के इस पवित्र जल का स्पर्श न करने के विषय में किमी की आज्ञा नहीं मान सकतं । गङ्गा का जलम्पर्श करने से हमें कोई नहीं रोक सकता। अर्जुन का उत्तर सुनकर गन्धर्वगज चित्रग्थ ने अपने धनुप का खींच कर पैन पैन बाण छोड़ना प्रारम्भ किया। पर अर्जुन ने अपनी ढाल के सहारे गन्धर्वगज के सारे बाण व्यर्थ कर दिये । इसके अनत्तर क्रोव से लाल होकर अर्जुन ने उम महातेजोमय दिव्य अस्त्र का लिया जिसे उन्होंने द्रोणाचार्य से प्राप्त किया था। इस अस्त्र का हाथ में लेकर बड़े वंग से उहोंने चित्ररथ पर छोड़ा । बम उसके छूटने की देरी थी कि गन्धर्वराज का रथ जल कर खाक हो गया और वे मुँह के बल जमीन पर जा गिरं । इस समय गन्धर्वगज चित्रग्थ की स्त्री युधिष्ठिर की शरण में आई और स्वामी की प्राणरक्षा के लिए बिनती करने लगी। युधिष्ठिर तो स्वभाव ही से दयालु थे । उन्होंने चित्रग्थ के प्राण लेन से अर्जुन को रोक दिया । वे बोल : शत्रुओं का नाश करनेवाल हे अर्जुन ! हारे हुए शत्रु को मारना उचित नहीं । फिर इसकी तो स्त्री भी हमारी शरण आई है । इमस, भाई, इस छोड़ दा । इसक प्राण मत लो। तब अर्जुन ने चित्ररथ से कहा : हं गन्धर्व ! अब तुम अपने प्राण लंकर चले जाव । हम अब तुम्हें नहीं मानेंगे । देखो, कुरुगज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे है। चित्ररथ प्रसन्न होकर उठे और बाल :-- हे महाबली ! हमने तुमसे हार मानी । अब हम तुमसे मित्रता स्थापन करना चाहते है । हं वीर ! हम तुम्हें अपने अतिवेगवान् घाड़ देते हैं। इनके बदले में तुम हमें अपना यह परमात्तम आग्नेय अस्त्र दन की कृपा कगे।। अर्जुन ने इस बात का मान लिया । वे बोले :इस समय घोड़ों को आप अपने ही पास रहने दें; ज़रूरत पड़ने पर हम आप स ल लेंगे। उस दिन से अर्जुन और गन्धर्वराज चित्ररथ में परस्पर मित्रता हो गई। यह मित्रता बराबर बनी रही। कभी उसमें अन्तर नहीं पड़ा। इसी गन्धर्व की सलाह से पाण्डव लाग उत्कीच तीर्थ का गये । वहाँ धौम्य नामक एक ब्राह्मण तपस्या करता था। उस पाण्डवों ने अपना पुरोहित बनाया। वहाँ से द्रौपदी का स्वयंवर देखने की इच्छा से फिर उन्होंन पाञ्चाल नगर की और यात्रा की । ५-पाण्डवों का विवाह और राज्य की प्राप्ति कुन्ती के साथ पाण्डम लोग रास्त में रमणीय सरोवरों के पास ठहरत हुए, दक्षिण पाञ्चाल देश की तरफ़ चलने लगे । रास्ते में उनको बहुत से ब्राह्मण मिले जो स्वयंवर देखने के लिए जा रहे थे । ब्राह्मण