पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/७१

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पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का पाण्डव पर अत्याचार ५१ पर दे मारा और पीठ पर घुटन लगा कर एक हाथ से उसकी गरदन पकड़ी दूसरे से उमका लँगोट । इस तरह इसकी गढ़ को तोड़कर उसके उन्होंने दो टुकड़े कर डाले । बक के बन्धु-बान्धव उसे मरा देख मारे डर के इधर उधर भाग गय । बक के मरने की खबर नगर में पहुँची तो लोगों का महा आनन्द हुआ। खुशी से सब लोग फूल उठे। चारों तरफ आनन्द-मङ्गल होने लगा। बहुतों ने देवी-देवताओं का विधिपूर्वक पूजन किया। तरह तरह से लोगों न आनन्द मनाया। खाज करने पर जब यह मालूम हुआ कि आज इस ब्राह्मण की बारी थी तब सब लोग इस अचरज भरी घटना के विषय में उमसे भाँति भाँति के प्रश्न करने लगे। पाण्डवों की मलाह से ब्राह्मण ने यथार्थ वात को छिपा कर कहा :--- ___ परिवार समा हमें दुःग्व-समुद्र में डूबा हुआ देख एक महा नेजम्बी ब्राह्मण को हम पर दया लगी। उन्होंने हमें धीरज देकर इस विपदा से बचाने का वचन दिया। यह उन का काम है। निश्चय जानिए, उन्हीं ने गक्षस को मारा है। पहले की तरह इसी ब्राह्मण के घर पाण्डव रहने लगे। कुछ दिन बीतने पर एक ब्राह्यण, अनेक देश-देशान्तरों में घूमना हुआ, इस ब्राह्मण के घर आकर ठहग। युधिष्ठिर आदि ने बड़े आदर और बड़ी श्रद्धा-भक्ति से उसकी सेवा की। इससे वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने भ्रमण का सब हाल क्रम क्रम से कह सुनाया। नाना देश, नगर, नीर्थ, नदी आदि का वर्णन उसने किया । नाना राज्यों की बातें और नाना प्रकार की अाश्चर्यभरी कथायें उसने सुनाई। प्रसङ्ग आने पर उसने द्रोण के मारने के लिए राजा द्रपद के यज्ञ की भी बात कही। उससे महाबली धृष्टद्य म्न, पुत्र की तरह पालन की गई शिखण्डिनी और परम सुन्दरी कृष्णा की उत्पत्ति का वृत्तान्त भी उसने बताया। अन्त में उसने महारूपवती द्रौपदी के स्वयंवर का भी हाल कहा। उसने कहा कि बहुत बड़े ठाट-बाट से इस स्वयंवर के करने की तैयारियाँ हो रही हैं ! ये सब कोतुकभरी बातें सुन कर पाण्डवों का चित्त चलायमान हा उठा। उनके मुँह पर उदासी छा गई। कुछ देर तक वे चुपचाप बैठे साचते रहे। यह दशा देख बुद्विमनी कुन्नी ने युधिष्ठिर से कहा : बंटा ! यहाँ इस ब्राह्मण के घर में रहते हमें बहुत दिन हो गये। इस स्थान में वन, उपवन आदि जो कुछ देखन योग्य था सब हम लोगों ने देख लिया। बार बार देखने के कारण अब उस दृश्य को देखने से मन में अानन्द नहीं होता। अब भिक्षा भी हम लोगों को कम मिलन लगी है। इससे यदि तुम सबकी इच्छा हो ता चला हम लोग पाञ्चाल नगर में जाकर ब्राह्मण की कही हुई सारी घटनायें अपनी आँखों से देखें। इस विषय में बातचीत हा ही रही थी कि महपि वेदव्याम, अपन कह अनुनार, वहाँ आकर फिर उपस्थित हुए। उन्होंने भी पाण्डवों का यही सलाह दी कि पाञ्चाल नगर तुम्हें जाना चाहिए। इससे पाण्डवों ने प्रसन्न होकर द्रुपद-देश की ओर प्रस्थान किया । व्यासदेव भी आदरपूर्वक सबसे बातचीत करके और शुभाशीर्वाद देकर बिदा हुए। एक दिन माता का साथ लिये हुए पाण्डव लाग गङ्गा के किनारे सामान्द्र नाम के तीर्थ में पहुँचे। उस समय सन्ध्या हो गई थी। अन्धकार चागं तरफ फैल गया था। इसस अर्जुन ने एक मशाल जला कर हाथ में ली और सबकं आगे आगे चले। उसके उजियाले में उनके पीछे पीछे और सब लोग चले । इस समय गङ्गाजी के निर्मल जल में गन्धगे के गजा महाबली चित्ररथ अपनी स्त्रियों को लिये हुए जलक्रीड़ा कर रहे थे। गङ्गा के किनारं किनारे चलनेवालं पाण्डवों के पैरों की आहट उन्होंने सुनी। यह उन्हें बहुत बुरा लगा। रङ्ग में भङ्ग होने से उन्हें क्रोध आ गया। वे अपने धन्वा की प्रत्यञ्चा का टंकार शब्द करते हुए अर्जुन से कहने लगे :