पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४२

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१३० सत्यार्थप्रकाश: ।। जो अविद्या के भीतर खेल रहे अपने को धीर और पण्डित मानते हैं वे नीच गति को जानेहारे मूढ जैसे अंधे के पीछे अंधे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं वैसे दुःखों को पाते हैं ॥ १ ॥ जो बहुधा अविद्या में रमण करनेवाले वालवुद्धि हम कृतार्थ हैं ऐसा मानते हैं जिसको केवल कर्मकाडी लोग राग से मोहित होकर नहीं जान और जना सकते वे आतुर होके जन्म मरणरूप दुःख में गिरे रहते हैं ॥ २ ॥ इसलिये:- वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्ध- सत्वाः । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ मुण्ड । खं० २ । मं०६॥ जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमंत्रो के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित सन्यासयोग से शुद्धान्त.करण संन्यासी होते हैं वे परमेश्वर में मुक्ति सुख को प्राप्त हो भोग के पश्चात् जय मुक्ति में सुखकी अवधि पूरी हो- जाती है तब वहां से छूटकर ससार में आते हैं मुक्ति के विना दु.ख का नाश नहीं होता क्योंकि:- न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वा- वसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः ॥ छान्दो० । प्र०८। खं० १२॥ ___जो देहधारी है वह सुख दु.ख की प्राप्ति से पृथक् कभी नहीं रह सकता और जो शरीर रहित जीवात्मा मुक्ति में सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध होकर रहता है तब उसको सांसारिक सुख दुख प्राप्त नहीं होता इसलिये - पुढेषणायाश्च वित्तषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ. भिक्षाचयं चरन्ति ॥ शत. कां. १४ । प्र० ५ । ब्रा० २ ।। कं० १॥ लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ वन से भोग वा मान्य पुत्रादि के मोह से अलग हो के संन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं । प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं नस्यां सर्ववेदसं हुत्वा ब्राह्मणः । प्रजेत् ॥ १॥ यजुर्वेद ब्राह्मणे ॥