पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५०

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___ सत्यार्थप्रकाश.॥ यतीनां काञ्चनं दद्यात्ताम्बूलं ब्रह्मचारिणाम् । चौराणामभयं दद्यात्स नरो नरकं ब्रजेत् ॥ इत्यादि वचनों का अभिप्राय यह है कि संन्यासियों को जो सुवर्ण दान दे तो दाता नरक को प्राप्त होवे ( उत्तर ) यह बात भी वर्णाश्रमविरोधी सम्प्रदायी और । स्वार्थसिन्धुवाले पौराणिकों की कल्पी हुई है, क्योंकि संन्यासियों को धन मिलेगा तो वे हमारा खण्डन बहुत कर सकेंगे और हमारी हानि होगी तथा वे हमारे आ- धीन भी न रहेंगे और जब भिक्षादि व्यवहार हमारे आधीन रहेगा तो डरते रहेंग! जब मूर्ख और स्वार्थियों को दान देने में अच्छा समझते हैं तो विद्वान् और परोप- कारी संन्यासियों को देने में कुछ दोष नहीं हो सकता देखो: - विविधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत् ॥ * नाना प्रकार के रत्न सुवर्णादि धन ( विविक्त ) अर्थात् संन्यासियों को देवे और । वह श्लोक भी अनर्थक है क्योंकि सन्यासी को सुवर्ण देने से यजमान नरक को जाये तो चांदी, मोती, हीरा आदि देने से स्वर्ग को जायगा ( प्रश्न ) यह पण्डित- जी इसका पाठ बोलते भूल गये यह ऐसा है कि "यतिहस्ते धनं दद्यात्" अर्थात् जो संन्यासियों के हाथ में धन देता है वह नरक में जाता है ( उत्तर ) यह भी वचन अविद्वान् के कपोलकल्पना से रचा है क्योंकि जो हाथ में धन देने से दाता । नरक को जाय तो पग पर धरने वा गठरी बांध कर देने से स्वर्ग को जायगा इस. लिये ऐसी कल्पना मानने योग्य नहीं । हां यह बात तो है कि जो संन्यासी योग- श्रम से अधिक रक्खेगा तो चौरादि से पीड़ित और मोहित भी होजायगा परन्तु जो विद्वान् है वह प्रयुक्त व्यवहार कभी न करेगा, न मोह में फेंमेगा क्योंकि वह प्रथम गृहाश्रम में अथवा ब्रह्मचर्य में सब भोगकर वा सब देख चुका है और जो अक्ष- पर्य से होता है वह पूर्ण वैराग्ययुक्त होने से कभी नहीं फँसता { प्रश्न ) लोग कहते है कि बाद में मंन्यासी आवे वा जिमावे तो उसके पितर भाग जायें और नाक में गिरें । उत्तर प्रथम तो मर हुए पितरों का पाना और किया हुया श्राद्ध मोर पितरों को पहुंचना ही असम्भव वेद और युक्तिविरुद्ध होने से मिथ्या है । । और जब पाते ही नहीं तो भाग कौन जायेंगे जर अपने पाप पुण्य के अनुसार मनु० भ० ११ । ६ ॥