पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५१

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५मसमुल्लासः ॥ ईश्वर की व्यवस्था से मरण के पश्चात् जीव जन्म लेते हैं तो उनका आना कैसे हो सकता है ? इसलिये यह भी बात पेटार्थी पुराणी और वैरागियों की मिथ्या कल्पी हुई है। यह तो ठीक है कि जहां संन्यासी नायेंगे वहां यह मृतकश्राद्ध करना वेदादि शास्त्रो से विरुद्ध होने से पाखण्ड दूर भाग जायेगा (प्रश्न ) जो ब्रह्मचर्य से संन्यास लेवेगा उसका निर्वाह कठिनता से होगा और काम का रोकना भी अवि कठिन है इसलिये गृहाश्रम वानप्रस्थ होकर जब वृद्ध होजाय तभी संन्यास , लेना अच्छा है (उत्तर) जो निर्वाह न करसके इन्द्रियों को न रोक सके वह । ब्रह्मचर्य से संन्यास न लेवे, परन्तु जो रोक सके वह क्यों न लेवे ? जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्यसंरक्षण के गुण जाने हैं वह विषयासक्त कभी नहीं : होता और उनका वीर्य विचाराग्नि का इन्धनवन् है अर्थात् उसी मे व्यय होजाता । है । जैसे वैध और औषयों की आवश्यकता रोगी के लिये होती है वैनी नीरोगी , के लिये नहीं । इसी प्रकार जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या धर्मवृद्धि और सब : । संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो वह विवाह न करे । जैसे पंचशि- । खादि पुरुष और गार्गी आदि त्रियां हुई थीं इसलिये संन्यासी का होना अधिका- रियों को उचित है और जो अनधिकारी संन्यासग्रहण करेगा तो आप डूबेगा औरों । को भी दुवावेगा जैसे "सम्राड्" चक्रवर्ती राजा होता है वैसे "परिवाद" संन्यासी } होता है प्रत्युत राजा अपने देश में वा स्वसम्बन्धियों में सत्कार पाता है और संन्यासी सर्वत्र पूजित होता है । विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ यह चाणक्य नीतिशाख का श्लोक है-विद्वान और राजा की कभी तुल्यता नहीं हो सकती क्योकि राजा अपने राज्य ही में मान और सत्कार पाता है और । विद्वान् सर्वत्र मान और प्रतिष्टा को प्राप्त होता है । इसलिये विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिये ब्रह्मचर्या, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध । करने के अर्थ गृहस्थ, विचार ध्यान और विज्ञान बढ़ाने तपश्चर्या करने के लिये । } वानप्रस्थ और वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार, धर्म व्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यव- । हार के त्याग, सत्योपदेश और मव कोनि:सदेह करने आदि के लिये सन्यामाश्रम । है। परन्तु जो इस संन्यास के मुख्य धर्म सत्योपदेशादि नहीं करते व पतित भोर ।