पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५४

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सत्यार्थप्रकाशः ॥ __तं सभा च समितिश्च सेनां च ॥ १ ॥ अथर्व० कां. १५ । अनु० २। व० है । मं०.२॥ सभ्य सभा में पाहि ये च सभ्योः सभासदः ॥ २॥ अथर्व० कां० १६ । अनु०७। व० ५५ । मं०६॥ ('वम् । उस राजधर्म को ( सभा च ।तीनों सभा (ममितिश्च ) संग्रामादि की व्यवस्था और ( सेना च ) सेना मिलकर पालन करें ॥१॥ सभासद् और राजा को योग्य है कि राजा सत्र सभासदों को आज्ञा देवे कि हे (सभ्य ) सभा के योग्य मुख्य सभासद् तू । मे ) मेरी ( सभाम् ) सभा की धर्मयुक्त व्यवस्था का ( पाहि ) पालन कर और (ये च ) जो ( सभ्या: ) सभा के योग्य ( सभासद.)सभासद्, हैं वे भी सभा की व्यवस्था का पालन किया करें ॥२॥ इसका अभिप्राय यह है । कि एक को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिये किन्तु राजा जो सभापति : तदाधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राज- सभा के आधीन रहै यदि ऐसा न करोगे तो:- राष्ट्रमेव विश्याहन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः । विश- मेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्रीविशनत्ति न पुष्टं पशुं मन्यत इति ॥ शत० कां० १३ । प्र० २। ब्रा० ३। कं० ७।८॥ - - ___जो प्रजा से स्वतन्त्र स्वाधीन राजवर्ग रहे तो ( राष्ट्रमेव विश्याइन्ति ) राज्य : में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करें जिसलिये अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके (राष्ट्री विशं घातुक. ) प्रजा का नाशक होता है अर्थात् ( विशमेव राष्ट्रायाद्या करोति ) वह राजा प्रजा को खाये जाता ( अत्यन्त पीड़ित करता ) है इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये जैसे सिंह वा मांसाहारी हृष्ट पुष्ट पशु को मारकर खालेते हैं वैसे ( राष्ट्री विशमत्ति ) स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता श्रीमान् को लूट खूद अन्याय से दण्ड लेके अपना प्रयोजन पूरा करेगा, इसलिये:---