पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१७८

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१६६ सत्या प्रकाशः 11 आयर्ति सवेकायांॉ तदर्च च विचारयेत् । ) श्रतोताना च सर्वेष गुणदोषौ च तस्वतः ॥ २ ॥ आयरयां गुणदोषज्ञस्तदावे क्षि निश्चयः। ' अतीते कायेशेषज्ञः शत्रुभिनॉभिभूयते ॥ ३ । यथेन नाभिसंदक्षैित्रोदासीनषेत्रवः । तथा सर्व संविदध्यादेष समासिको नयः ॥ ४ ॥ ५ मनु० ७ से १७७-१८० ॥ नीति का जाननेवाला पृथिवीपति राजा जिस प्रकार इसके मित्र उदासीन ( मध्यस्थ ) और शत्रु अधिक न । हों ऐसे सब उपायों से वर्दी ॥ १ सव ! 1 काय। का कर्त्तव्य और भविष्य में करना और जो २ काम वर्तमान में जो २ चाहिये कर चुके इन सत्र के यथार्थता से गुण दोषों को विचार करे !॥ २ ॥ पश्चात् दो ? के निवारण और गुणों की स्थिरता में यत्न करे जो राजा भविष्यत् अर्थात् आगे । करनेवाले कमाँ में गुण हैोपों का ज्ञाता वर्तमान में तुरन्त निश्चय का कत्तों मर ; किये हुए ायों में शेप कर्तव्य को जानता है वहृ शत्रुओं से पराजित कभी नहीं । है। हता ॥ ३ ॥ सब प्रयन्न प्रकार से राजपुरुष विशेष सभापति राजा ऐसा करे कि 1 जिस प्रकार राजादि जनों के मित्र उदासीन और शत्र को वश में करके अन्यथा । फराखे ऐसे मोह में कभी न फंस यही संक्षेप से विनय अर्थात् राजनीति कहती है ll ally । कृवा विधान मूले तु यानिक च यथाविधि i उपग्रह्यास्पद चैव चारन् सम्ग्विधाय च ॥ १ ॥ संशोध्य विधे मार्ग पविधे च वर्ष स्वर्मा । सांपगयेककल्न यायादरिपुर शूनः ॥ २ ॥ शमुसधिनि मिचे व ई युक्तरो भवेत् । गतप्रत्यागते चेव स हि कप्त रिपु. 1 ३ ॥