पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२७३

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- २६३ नवम स मुल्लास ॥ भियन्ते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सबसंशयाः । दोयन्त चास्य कमाण तीस्मन् दृष्ठ परावरे ॥ मुण्डक २ । खं० २ । ° ८ ॥ जब इस जव के हृदय की अवेद्य अज्ञानरूपी गाठ कट , सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कमे क्षय को प्राप्त होते हैं तभी उस पर मामा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है उसमें निवास कर ता है । ( प्रश्न ) मुक्ति में परमेश्वर में जीव मिल जाता है वा पृथक् रहता है ? ( उत्तर ) पृथक रहता है, क्योंकि जो मिल जाय तो मुक्ति का सुख कौन भोगे और मुक्ति के जितने साधन हैं वे सब निष्फल होजाबें, बश मुक्ति तो नहीं किन्तु जीव का प्रलय जानना चाहिये । जब जीव परमेश्वर की आज्ञापालन उत्तम कमें सरस तू योगा- भ्यास पूवांत सब साधन करता हूं वहां सुरों को पाता है । > > है । सत्यं ज्ञानमनन्त ब्रह यो वेद निहित गुहायां परमे व्योमन् । सोश्ते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मण विश्चिते ति ॥ तैत्तिरी० अनन्दवल्ली । अनु० १ ॥ जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आन- न्दस्वरूप परमात्मा को जानता है वह उस व्यापकरूप ब्रह्मा में स्थित होके उस ‘विप- श्चित्' अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्मा के साथ सब कामों को प्राप्त होता है अर्थात् जिस २ आनन्द की कामना करता है उस २ आनन्द को प्राप्त होता है यही मुक्ति कहती है। ( प्रश्न ) जैसे शरीर के विना सांसारिक सुख नहीं भोग सकता वैसे मुक्ति में विना शरीर आनन्द कैसे भोग सकेगा ' ( उत्तर ) इसका समाधान पूर्व कई आये हैं और इतना अधिक सुनोजैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है वैसे परमेश्वर के आधार मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है । बहू मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब स्ष्टि को देखता अन्य मुक्कों के साथ मिलता, स्मृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकमन्तरां में अन जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते उन सब में घूमता है वह सब पा को जो कि उसके ज्ञान के आगे हैं देखता है जितना ज्ञान अधिक होता है इस को । उतना ही आनन्द अधिक होता है मुप्ति म जीवारा निर्मल होने ने पूर्ण ज्ञानी 1 ) - ।