पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३११

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--- - - --- एकादशसमुल्ला: ।।

और जहां २ लेख है वहां २ भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है देखो' राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे विद्यादि का देनेहारा यजमाने और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न,इन्द्रियां, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मरजाय तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है । ( प्रश्न ) यज्ञकर्ता कहते हैं कि यज्ञ करने से यजमान और पशु स्वर्गगामी तथा होम करके फिर पशु को जीता करते थे यह बात सच्ची है वो नहीं ? (उत्तर) नही, जो स्वर्ग को जाते हो तो ऐसी बात कहनेवाले को मारके होम कर स्वर्ग में पहुंचाना चाहिये वा उसके प्रिय माता, पिता, स्त्री और पुत्रादि को मार होम कर क्यों नहीं पहुंचाते ? वा वेद में से पुन क्यों नहीं जिला लेते है ? ( प्रश्न ) जब यज्ञ करते हैं तब वेदों के मन्त्र पढ़ते हैं जो वेदों में न होता तो कहांसे पढ़ते ? (उत्तर) मन्त्र किसी को कहीं पढ़ने से नहीं रोकता क्योकि वह एक शब्द है परन्तु उनका अर्थ ऐसा नही है कि पशु को मार के होम करना जैसे अग्नये स्वाहा' इत्यादि मन्त्रों का अर्थ अग्नि में हवि पुष्ट्यादिकारक घृतादि उत्तम पदार्थों के होम करने से वायु, वृष्टि, जल शुद्ध होकर जगत् को सुखकारक होते हैं परन्तु इन सत्य अर्थों को वे मूड नहीं समझते थे क्योंकि जो स्वार्थबुद्ध होते हैं वे केवल अपने स्वार्थ करने के दृ. सरा कुछ भी नहीं जानते मानते जब इन पोपों का ऐसा अनाचार देखा और टूसरा मरे का तर्पण श्रद्धादि करने को देखकर एक महाभयंकर वेदादि शास्रो का निन्दक बौद्ध व जैनमत प्रचालित हुआ है । सुनते हैं कि एक इसी देश में गोरखपुर का राजा था उससे पोप ने यज्ञ कराया उसकी प्रियराणी का समागम घड़े के साथ कराने से उसके मरजाने पर पश्चात् वैराग्यवान् होकर अपने पुत्र को राज्य दे साधु हो पोपो' की पोल निकालने लगा । इसकी शाखारूप चारवाक और अभाणक मत भी हुअा था उन्होंने इस प्रकार के इलोक बनाये हैं --- पशुश्चेन्निहितः, स्वर्ग ज्योतिष्टा गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कमाझ हिंस्यते ।। मृतानामिह जन्तूनां श्राद्ध चेतृप्तिकारणम् । गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम् ।। = =