पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३२५

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। । एकादशसमुल्लासः ।। ३ १५ जिसको जलाधारी और लिङ्ग कहते हैं और उसकी पूजा करने लगे उन निर्लज्जों को तनिक भी लज्जा ने आई कि यह पामरपन का काम हम क्या करते हैं ? किसी कविने कहा है कि स्वार्थी दोष न पश्यति स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ सिद्ध करने में दुष्ट कामों को भी श्रेष्ठ मान दोष को नहीं देखते हैं उसी पाषाणादि मूर्ति और भग लिगकी पूजा में सारे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि सिद्धियां मानने लगे। जव राजा भोज के पश्चात् जैन लोग अपने मन्दिरों में मूर्तिस्थापन करने और दर्शन स्पर्शन को आने जाने लगे तब तो इन पोप के चेले भी जैन मन्दिर में जाने आने लगे और उधर पश्चिम से कुछ दूसरो के मत और यवन लोग भी आय्यावर्त में आने जाने लगे तब पोप ने यह श्लोक बनाया:न वदेद्यावनी भाषा प्राः कण्ठगतैरपि ।। हास्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छज्जैनमन्दिरम् ॥ | चाहे कितना ही दु ख प्राप्त हो और प्राण कण्ठगत अर्थात् मृत्यु का समय भी क्यों न आया हो तो भी यावनी अर्थात् म्लेच्छभाषा मुख से न बोलनी और उन्मत्त हस्ती मारने को क्यों न दौड़ा आता हो और जैन के मन्दिर में जाने से प्राण बचता हो तो भी जैनमन्दिर में प्रवेश न करे किन्तु जैनमन्दिर में प्रवेश कर वचने से हाथी के सामने जाकर मरजाना अच्छा है। ऐसे २ अपने चेल को उपदेश करने लगे जब उनसे कोई प्रमाण पूछता था कि तुम्हारे मत में किसी माननीय ग्रन्थ का भी प्रमाण है ? तो कहते थे कि हा है, जब वे पृछते थे कि दिखला ? तव मार्कण्डेय पुराणादि के वचन पढ़ते और सुनाते थे जैसा कि दुगोपाठ में देवी का वर्णन लिव है राजा भोज के राज्य में व्यासजी के नाम से मार्कण्डेय और शिवपुराण किसी ! ने बनाकर खड़ा किया था उसका समाचार राजा भोज का विदित होने से उन पण्डिों को इस्तन्छदादि दण्ड दिया और उनसे कहा कि वे कोई ब्यादि अन्य वनावे तो अपने नाम से बनावे ऋषि मुनिया के नाम से नहीं। यह बात राजा भोज के - नाये संजीवनी नामक इतिहास में लिखी कि जे ग्वालियर के राज्य ••भण्ड' नाम है। नगर के तियरई सण के घर में है जिस पर के राम। र उन के गम । रामदयाल जी ने अपनी शान से देखा है उसमें स्पष्ट लिई शियःमः ३ दर सहस्र चारस प्रौर उनके शिष्य ने पाच महम्न उ. युः अथइ म ।