पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/५४

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तृतीयसमुल्लास: । ४ १ अथ यान्यष्टाचस्वारिश्शद्रह्मणि ततृतीयसवनमष्टाच - | वारिशदक्षरा जगती जागत तृतीयसवटें तदस्या दित्यन्वायसाः प्राणा बावादिया एते हीद५ सर्वमा ददते ॥ ५ ॥ तं चेदेतस्मिन् वयसि किचिदुपतपेस ब्रूयात् प्राणा नादिया इदं तीयसवनसार्यरतलुतेति माह में प्राणानमादियान मध्ये यज्ञ विलोप्सी'युदैव तत ए- | त्यगो हैब भवति ॥ ६ ॥ नह्मचर्य यह छान्दोग्योपनिषद् प्रपाठक ३ खण्ड १६ का वचन है । तीन प्रकार का होता है कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम, उनमे से कनिष्ठ-जो पुरुष अन्न रसमय दे और पुरि अत् देह में शयन करनेवाला जीवात्मा य अर्थात् अतीव शुभगुणो से सद्भुत छौर सस्क्रर्त्तव्य है इसको आवश्यक है कि २४ वर्ष पर्यन्त 1 जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्माचारी रह कर वेदादि विद्या और शिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी लम्पटता न करे तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सव । शुभशो के वास करानेवाले होते हैं । इस प्रथम वय में जो उसको विद्याभ्यास से ! संतप्त करे और वह आचार्य वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रक्खे कि जो में प्रथम अवस्था में ठीक १ ब्रह्मचारी रहूंगा तो मेरा शरीर और

आत्म आरोग्य बलवान् हो के शुभणों को बसानेवाले मेरे प्राण होगे । हे मनुष्यो!

1 । तुम इस प्रकार से सुखो का विस्तार करोजो मै ब्रह्मचर्य का लोप न कर्ज २४ वर्ष 1 के पश्चात् ग्रहाश्रम करूगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित रहूंगा और आयु भी मेरी j ७० वा ८० वर्ष तक रहेगी । म॰यम ब्रह्मचर्य यह है-जो मनुष्य ४४ वर्ष पर्यन्त

ब्रह्मचारी रहकर वेदाभ्यास करता है उसके प्राणइन्द्रिया, अन्तकरण और छात्मा !

बलयुक्त हो के सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठो का पालन करनेहारे होते हैं 1 जो 1 में इसी प्रथम वय से जैसा आप कहते हैं कुछ तपश्चय करू तो मेरे ये रुद्ररूप प्राण क्त यह मध्यम नहचर्य सिद्ध होगा । दे नह्मचारी लोगो ! तुम इस दायरी