पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७३

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सत्याका: । - ०७५०० रूप से एक साल एक या : ' 49 as संविधान के २-० से दव्याभव्यगुणवान् संयचवभागंण्वकारणस्लप इत गुणलक्षण : वें॰ । अ० १। आ० २ । सू० १६ ॥ गुण उसको कहते हैं कि जो द्रव्य के आश्रय रहे अन्य गुण का धारण न करे है सयोग और विभाग में कारण न हो अनपेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न करे । श्रोत्रोपलठिधर्बुद्धि निग्रह्यः प्रयोगेणाsभिज्वलित आ- कादेशः शब्दः ॥ सहभाष्य ॥ जिसकी क्षेत्रों से प्राप्ति, जो और प्रयोग से बुद्धि से ग्रहण करने योग्य प्रकाशित है बह शब्द कहाता है नेत्र स जिसका तथा आकाश जिसका देश ग्रहण हो बहू रूप, जिह्वा से जिस मिष्टादि अनेक प्रकार का ग्रहण होता है वह रस, 1 नासिका से जिसका प्रहण होता वह गन्ध, त्वचा से जिसका ग्रहण होता वह स्पर्श, एक द्वि इत्यादि गणना जिससे होती है वह संख्या, जिससे तोल अथांत हलका ॥ भारी विदित होता है वह परिमाणएक दूसरे से अलग होना बह पृथकृत्व, एक दूसरे के साथ मिलना वह संयोग, एक दूसरे से मिले हुए के अनेक टुकड़े होना वह विभाग, इससे यह पर है वह पर, उससे यह उरे है वह अपर जिससे अच्छे रे का ज्ञान होता है वह छुट्टि, आनन्द का नाम सुख, क्लेश का नाम दुःख, इच्छा--राग, द्वेष-विरोध(प्रयत्न ) अनेक प्रकार का बल पुरुषार्थ( गुरुत्व ) । भारीपन( द्रवत्व ) पिघलजाना, ( स्नेह ) प्रीति और चिकनापन, ( संस्कार ) दूसरे के योग से वासना का होना, ( धम) न्यायाचरण और कठिनत्वादि, ( अधसे ) । अन्यायाचरण और कठिनता से विरुद्ध कोमलता ये चौंवीस ( २४ ) गुण हैं ! ! उरक्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चरें प्रसारण गमनमिति क- ! मण 1 ॥ वै०। अ० १ । श्रा, १ । सु० ७ !॥ ckक्षेपण' अपर को चेष्टा करना अवलेपण नीचे को चेष्टा करना ‘अ- ? कु ध्चनसोच करना ' 'प्रसारण' फैलाना ‘गमन" आना जाना धूमना आदि ! ' इनो कमें कहते हैं । अब कर्म का छक्षण