पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७६

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तृतीयसमुल्लासः ॥ | श्रणुमहदिति तस्मिन्विशेषभावाद्विशेषाभावाच ॥ वैः । अ०७। प्रा० १ । सू० ११ ॥ ( अणु ) सूक्ष्म ( महत् । बड़ा जैसे त्रसरेणु लिक्षा से छोटा और द्वयणुक से बड़ा है तथा पृथिवी से छोटे वृक्षो से बड़े है । सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता ॥ वै० अ० १। आ० २ । सू०७॥ जो द्रव्य गुण कर्मों में सत् शब्द अन्वित रहता है अर्थात् “सद् द्रव्यम्-सन् गुणः-सत्कर्म" सत् द्रव्य, सत् गुण, सत् कर्म अर्थात् वर्तमान कालवाची शब्द | का अन्वय सब के साथ रहता है । भावोनुवृत्तरेव हेतुत्वात्सामान्यमेव ॥ वै० । अ० १ । ' आ० २। सू० ४ ॥ जो सब के साथ अनुवर्तमान होने से सत्तारूप भाव है सो महासामान्य कहाता है यह क्रम भावरूप द्रव्यों का है और जो अभाव है वह पांच प्रकार का होता है । क्रियागुणव्यपदेशाभावात्प्रागसत् ॥ वै० । अ० है । प्रा०१ । स०१॥ • क्रिया और गुण' के विशेष निमित्त के प्राक् अर्थात् पूर्व ( असत् ) न था जैसे घट, वस्त्रादि' उत्पत्ति के पूर्व नही थे इसका नाम प्रागभाव ॥ दूसरा: सदसत् ॥ वै० । अ०६। प्रा० १ । सू० २॥ जो होके न रहे जैसे घट उत्पन्न होके नष्ट होजाय यह प्रध्वंसाभाव कहाता है । तीसराः सच्चासत् ।। वै० । अ० ६ । प्रा० १। सू०४॥ . जो होवे और न होवे जैसे 'गौरश्वोऽनश्वो गौ.' यह घोडा गाय नहीं और गाय घोडा नही अर्थात् घोड़े मे गाय का और गाय मे घोडे का अभाव और गाय | में गाय घोड़े में घोड़े का भाव है। यह अन्योन्याभाव कहाता है ।। चौथा.