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रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले - 'आज कैसे चला आया रे दुखिया?'
दुखी ने सिर झुका कर कहा - 'बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत[१]-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी?'
घासी - 'आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ, साँझ तक आ जाऊँगा।'
दुखी - ‘नहीं महाराज, जल्दी मर्जी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह धास कहाँ रख दूँ?'
घासी – 'इसे गाय के सामने डाल दे और ज़रा झाडू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। इसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर ज़रा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार
खाँची[२] भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।'
दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब तक बारह बज गये। पंडितजी भोजन
सद्गति/ मुंशी प्रेमचन्द8