पृष्ठ:सद्गति.pdf/१२

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करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की भूख लगी थी। पर वहाँ खाने को धरा ही क्या था ! घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाये, तो पंडितजी बिगड़ जायें। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी, जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना ज़ोर आज़मा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कस कर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता। पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने से तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे। पाँव काँप रहे थे। कमर सीधी न होती थी। आँखों तले अँधेरा हो रहा था। सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं। फिर भी वह अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम





सद्गति/मुंशी प्रेमचन्द9