इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला - 'क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक[१] हलकान[२] होते हो।'
दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा - 'अभी तो गाड़ी भर भूसा और ढोना है भाई !'
गोंड़ - 'कुछ खाने को भी मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं?'
दुखी - 'कैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी !'
गोंड़ - ‘पचने को पच जायगी, पर पहले मिले तो ! मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये। तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी-बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं !'
दुखी - 'धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाय।'
यह कह कर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आध घण्टे खूब कस-कस कर कुल्हाड़ी
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