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चलाई, पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कह कर चला गया - 'तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाय।'

दुखी सोचने लगा, 'बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक भी तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन[१] का घर है, एक-न-एक चीज घटी ही रहती है। पर इन्हें इसकी क्या चिन्ता। चलूँ तब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा।'

उसने झौवा[२] उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलाँग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जल्दी खत्म हो जाता। लेकिन फिर झौवे को उठाता कौन? भरा हुआ झौवा अकेले उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा

लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले - 'अरे, दुखिया तू सो रहा है? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे ज़रा-सी

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सद्गति/ मुंशी प्रेमचन्द17

  1. कार-परोजन - विवाह उत्सव,
  2. झौवा - टोकरा