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मार। तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है। लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है। हाँ, बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में।'

दुखी अपने होश में न था। न जाने कौन-सी गुप्त शक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमजोरी, मानो सब भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आध घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा। यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई, और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूट कर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खा कर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।

पंडितजी ने पुकारा - ‘इसको दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ[१] हो जायें। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना[२] उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले। दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा - 'अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी ,चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न?' दुखी फिर भी न उठा।

अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी

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सद्गति/मुंशी प्रेमचन्द19

  1. चैलियाँ - जलाने के लिए चिरी हुई लकड़ियाँ
  2. दिक करना - परेशान करना