पृष्ठ:सद्गति.pdf/२५

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दोनों हाय-हाय करती वहाँ चली आयीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पंडितजी ने चमारों को बहुत धमकाया, समझाया, मिन्नत की। पर चमारों के दिल पर तो पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न भिनका। आख़िर निराश होकर पंडितजी लौट आये।

आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार नहीं आया। और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ! कहीं कोई दिखा दे !

पंडिताइन ने झुँझला कर कहा - ‘इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सबों का गला भी नहीं पकता।'

पंडित ने कहा - 'रोने दो चुडै़लों को, कब तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात तक न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।'

पंडिताइन - 'चमार का रोना मनहूस है।'

पंडित - 'हाँ, बहुत मनहूस।'

पंडिताइन - ‘अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।'

पंडित - ‘चमार था ससुरा कि नहीं ! साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को !'

सद्गति/मुंशी प्रेमचन्द22