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घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता ! और नज़राने के लिए घास के सिवाय उसके पास और था भी क्या ! खाली देखकर तो बाबा उसे दूर ही से दुत्कार देते।

पंडित घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईश-उपासना में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बज जाते। तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी था। उसके बाद आध घण्टे तक चन्दन रगड़ते। फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती और बाहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएँ बनाते। उसके बाद ठाकुरजी की मूर्ति निकाल कर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घण्टी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईश-उपासना का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।

आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देख कर उसका हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया। कितनी दिव्य मूर्ति

सद्गति/ मुंशी प्रेमचन्द6