गोमतीको भी अपनी स्थितिका पूरा ख्याल रहता था। इसी कारण सासके शासन की तरह कठोर न रहने पर भी गोदावरीका शासन उसे अप्रिय प्रतीत होता था। उसे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिये भी गोदावरी से कहते संकोच होता था।
कुछ दिनों बाद गोदावरी के स्वभावमें एक विशेष परिवतन दिखाई देने लगा। वह पण्डितजी को घरमे आते-जाते बडी तीव्र दृष्टि से देखने लगी। उसकी स्वाभाविक गम्भीरता अब मानो लोप सी हो गई, जरासी बात भी उसके पेटमें नहीं पचती। जब पडितजी दफ्तर से आते तब गोदावरी उनके पास घण्टों बैठी गोमतीका वृत्तान्त सुनाया करती। इस वृत्तान्त-कथनमें बहुत ऐसी छोटी छोटी बाते भी होती थीं कि जब कथा समाप्त होती तब पडितजीके हृदयसे बोझसा उतर जाता। गोदावरी क्यों इतनी मृदुभाषिणा हो गई थी, इसका कारण समझना मुश्किल है। शायद अब वह गोमतीसे डरती थी। उसके सौन्दर्य से, उसके यौवन से, उसके लज्जायुक्त नेत्रों से शायद वह अपनेको पराभूत समझती। बांधको तोड़कर वह पानीकी धाराको मिट्टीके ढेलोंमे रोकना चाहती है।
एक दिन गोदावरीने गोमतीसे मीठे चावल पकानेको कहा। शायद वह रक्षाबन्धनका दिन था। गोमतीने कहा, शक्कर नहीं है। गोदावरी यह सुनते ही विस्मित हो उठी। शक्कर इतने जल्दी कैसे उठ गई। जिसे छाती फाड़कर कमाना पड़ता है, उसे अखरता है, खानेवाले क्या जाने?
जब पण्डितजी दफ्तरसे आये तब यह जरा-सी बात बड़ा विस्तृत रूप धारण करके उनके कानोंमें पहुंची। थोडी देरके लिये