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सौत
 


पडितजीके दिलमें भी यह शंका हुई कि गोमतीको कहीं भस्मक रोग तो नहीं हो गया।

ऐसी ही घटना एक बार फिर हुई। पडितजीको बवासीरकी शिकायत थी। लालमिर्च वे बिलकुल न साते थे। गोदावरी जब रसोई बनाती थी तब वह लालमिर्च रसोई-घरमे लाती ही न थी। गोमतीने एक दिन दालमें मसालेके साथ थोडी सी लालमिर्च भी डाल दी। पडितजीने दाल कम खाई। पर गोदावरी गोमतीके पीछे पड़ गई। ऐठकर वह उससे बोली। ऐसी जीभ जल क्यों नहीं जाती।

पडितजी बडे ही सीधे आदमी थे। दफ्तर गये, खाया, पड़ कर सो रहे। वे एक साप्ताहिक पत्र मंगाते थे। उसे कभी-कभी महीनों खोलनेकी नौवत न आती थी। जिस काममे जरा भी कष्ट या परिश्रम होता उससे वे कोसों दूर भागते थे। कभी कभी उनके दफ्तरमें थियेटर के "पास" मुफ्त मिला करते थे। पर पंडितजी उनसे कभी काम नहीं लेते। और ही लोग उनसे मांग ले जाया करते। रामलीला या कोई मेला तो उन्होंने शायद नौकरी करने के बाद फिर कभी देखा ही नहीं। गोदावरी उनकी प्रकृति का परिचय अच्छी तरह पा चुकी थी। पंडितजी भी प्रत्येक विषय में गोदावरीके मतानुमार चलने में अपनीकुशल समझते थे—

पर रुई-सी मुलायम वस्तु भी दबकर कठोर हो जाती है पंडितजी को यह आठों पहर की चहचह प्रसह्य सी प्रतीत होती। कभी-कभी मन में झुझलाने भी लगते। इच्छा शक्ति जो इतने