जी तो आलसी जीव थें। वे इन सब अत्याचारों को देखा करते,पर अपने शांतिसागरमें घोर उपद्रव मच जाने के भयसे किसी से कुछ न कहते। तथापि इस पिछले अन्यायने उनकी महती सहन-शक्ति को भी मथ डाला। एक दिन उन्होंने गोदावरीसे डरते-डरते कहा, क्या आजकल जलपान के लिये मिठाई-विठाई नहीं आती?
गोदावरी ने क्रुद्ध होकर जवाब दिया, तुम लाते ही नहीं तो आवे कहां से। मेरे कोई नौकर बैठा है ?
देवदत्तको गोदावरी के ये कठोर वचन तीर से लगे। आजतक गोदावरी ने उनसे ऐसी रोषपूर्ण बाते कभी न की थी।
वे बोले, धीरे बोलो, झुझलाने की तो कोई बात नहीं है। गोदावरी ने आँखे नीची करके कहा, मुझे तो जैसे आता है वैसे बोलती हूँ। दूसरोंकी-सी मधुर बोली कहां से लाऊं?
देवदत्त ने जरा गरम होकर कहा, आजकल मुझे तुम्हारे मिजाज का कुछ रग ही नहीं मालूम होता। बात बात पर तुम उलझती रहती हो।
गोदावरी का चेहरा क्रोधाग्नि से लाल हो गया। वह बैठी थी खड़ी हो गयी। उसके होंठ फड़कने लगे। वह बोली, मेरी कोई बात अब तुमको क्यों अच्छी लगेगी। अब तो मैं सिर से पैर तक दोषों से भरी हुई हूँँ। अब और लोग तुम्हारे मन का काम करेंंगेंं। मुझसे नहीं हो सकता। यह लो सन्दूक की कुंजी। अपने रुपये-पैसे सम्भाल लो, यह रोज रोजकी झंझट मेरे मानकी नहीं। जब तक निभा, निभाया। अब नहीं निभ सकता।
पण्डित देवदत्त मानो मूच्छित-से हो गये। जिस शांति भावका