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सप्तसरोज
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उन्हें भय था उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके उनके घरमें प्रवेश किया। वह कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ़ जानेका भय था। वह बाहर चले आये और सोचने लगे कि मैंने गोदावरीके साथ कौन-सा अनुचित व्यवहार किया है। उनके ध्यानमें न आया कि गोदावरी के हाथ से निकलकर घर का प्रबन्ध कैसे हो सकेगा। इस थोडी सी आमदनीमें वह न जाने किस प्रकार काम चलाती थी? क्या क्या उपाय वह करता थी? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेगे? उसे मनाना पडेगा और हो ही क्या सकता है। गोमती भला क्या कर सकती है, सारा बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा। मानेगी तो, पर मुश्किल से ।

परन्तु पंडितजीकी ये शुभकामनाए निष्फल हुई। सन्दूक की वह कुञ्जी विपैली नागिन की तरह वहीं आंगन में ज्यों-की त्यों तीन दिनतक पड़ी रही, किसी को उसके निकट जाने का साहस न हुआ।

चौथे दिन पण्डितजीने मानो जानपर खेलकर उस कुज्जी को उठा लिया। उस समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो किसी ने उनके सिर पर पहाड उठाकर रख दिया। आलसी आदमियों को अपने नियमित मार्ग से तिलभर भी हटना बडा कठिन मालूम होता है।

यद्यपि पडितजी जानते थे कि मैं अपने दफ्तरके कारण इस कार्यको सभालनेमें असमर्थ हूं, तथापि उनसे इतनी ढिठाई न हो सकी कि वह कुञ्जी गोमती को दें। पर यह केवल दिखावा ही भर था। कुञ्जी उन्हीं के पास रहती थी, काम सब गोमती को करना पडता था। इस प्रकार गृहस्थी के शासन का अन्तिम साधन भी