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सौत
 

गोदावरी को इस बात का एक बार परिचर मिल चुका था कि पंडितजी बाजार हाट के काम में कुशल नहीं है। इसलिये जब उसे कपड़े की जरूरत होती तब वह अपने पड़ोस के एक बूढे लालासाहब से मंगवाया करती थी। पण्डितजी को यह बात भूल सी गई थी कि गोदावरी को साड़ियों की भी जरूरत पड़ती है। उनके सिर में तो जितना बोझ कोई हटा दे उतना ही अच्छा था। खुद वे भी वही कपडे़ पहनते थे जो गोदावरी मगाकर उन्हें दे देती थी। पण्डितजी को नये फैशन और नये नमूनों से कोई प्रयोजन न था। पर अब कपड़ों के लिये भी उन्ही को बाजार जाना पड़ता है। एक बार गोमती के पास साड़िया न थीं। पण्डित जी बाजार गये तो एक बहुत अच्छा सा जोड़ा उसके लिये ले आये। बजाज ने मन-माने दाम लिये। उधार सौदा लाने में पण्डितजी जरा भी आगा-पीछा न करते थे। गोमती ने वह जोड़ा गोदावरी को दिखाया। गोदावरी ने देखा और मुह फेरकर रुखाई से बोली, भला तुमने उन्हे कपड़े लाना वो सिखा दिया। मुझे तो सोलह वर्ष बीत गये, उनके हाथ का लाया हुआ कपड़ा स्वप्न में भी पहनना नसीब नहीं हुआ।

ऐसी घटनाए गोदावरी की ईर्ष्याग्नि और भी प्रज्वलित कर देती थीं। जबतक उसे यह विश्वास था कि पण्डितजी स्वभाव से ही रूखे हैं तबतक उसे सन्तोष था। परन्तु अब उनकी ये नयी नयी तरंगे देखकर उसे मालूम हुआ कि जिस प्रीतिको मैं सैकडों-यन्न करके भी न पा सकी उसे इस रमणी ने केवल अपने यौवन-से जीत लिया। उसे अब निश्चय हुआ कि मैं जिसे सच्चा प्रेम समझ रही थी वह वास्तव मे कपटपूर्ण था। वह निरा स्वार्थ या