हैं। आखोंमे धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बांध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया। हम भी वनियेके बच्चे हैं, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हेमें मुह धो आओ तब दाम लेना, जी न मानता हो तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भरके बदले दो महीना जोत लो। रुपया क्या लोगे?
चौधरी के अशुभचिन्तकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और साहुजीके बर्राने की पुष्टि करते। इस तरह फटकारे सुनकर बेचारे चौधरी अपना-सा मुँह लेकर लौट आते, परन्तु डेढ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वे भी गरम पडे। साहुजी बिगडकर लाठी ढूंढने घर चले गये। अब सहुआइनजी ने मैदान लिया। प्रश्नोतर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घरमें घुस-कर किवाड़ बन्द कर लिये। शोरगुल सुनकर गांवके भलेमानुस जमा हो गये। उन्होंने दोनोंको समझाया। साहुजीको दिलासा देकर घर से निकाला। वे परामर्श देने लगे कि इस तरह सिर फुडौलसे काम न चलेगा। पंचायत करा लो। कुछ तै हो जाय उसे स्वीकार कर लो। साहुजी राजी हो गये। अलगूने भी हामी भर ली।
७
पंचायत की तैयारियां होने लगी। दोनों पक्षोने अपने-अपने दल बनाने शुरू किये। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नोचे- फिर पंचायत बैठी। वही सन्ध्या का समय था। खेतोंमें कौवे पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय यह था कि मटरकी