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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/७९

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नमकका दरोगा
 

अलोपीदीन हँसकर बोले, मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधरने गंभीर भावसे कहा, यो मैं भापका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुषकी सेवा करना मेरे लिये सौभाग्यका बात है। किन्तु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह अनुभव जो इन त्रुटियोंकी पूति कर देता है। ऐसे महान् कार्य के लिये एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्यकी जरूरत है।

अलोपीदीनने कलमदानसे कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथमें देकर बोले, न मुझे विद्वताकी चाह है, न अनुभवकी, न मर्मज्ञताकी, न कार्यकुशलताकी। इन गुणोंके महत्त्वका परिचय खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसरने मुझे यह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वताकी चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिये, अधिक सोच विचार न कीजिये दस्तखत कर दीजिये। परमात्मासे यही मेरी प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदीके किनारेवाला, बेमुरौवत, उद्दण्ड, कठोर, परन्तु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाये रक्खे।

वंशीधर की आँखें डबडबा आई। हृदयके संकुचित पात्रमें इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजीकी ओर भक्ति और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखा और काँपते हुए हाथसे मैनेजरीके काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिये।

अलोपीदीनने प्रफुल्ल होकर उन्हें गले लगा लिया।

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