दी। इस आत्म-विजयपर एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्माजी ही थे। समाज की उच्च श्रेणियोंमें इस आत्म त्यागकी चर्चा हुई और शर्माजी को अच्छी-खासी ख्याति प्राप्त हो गयी। इसीसे वह कई वर्षो से जातीय सेवामें लीन रहते थे। इस सेवाका अधिक भाग समाचार पत्रोंके अवलोकनमें बीतना था, जो जातीय सेवाका ही एक विशेष अङ्ग समझा जाता है। इसके अतिरिक्त वह पन्नोंके लिये लेख लिखते, सभाए करते और उनमें फडकते हुए व्याख्यान देते थे। शर्माजी "फ्री लाइब्रेरी" के सेक्रेटरी, "स्टुडेण्टस एसोसियेशन" के सभापति "सोसल सर्विस लीग" के सहायक मन्त्री और प्राइमरी एजूकेशन कमिटीके सस्थापक थे । कृषि-सम्बन्धी विषयोंसे उन्हें विशेष प्रेम था । पन्नों में जहा कहीं किसी नई खाद या किसी नवीन आविष्कारका वर्णन देखते, तत्काल उसपर लाल पेन्सिलसे निशान कर देते और अपने लेखोंमें उसकी चर्चा करते थे। किन्तु शहरसे थोडी दूरपर उनका एक बडा ग्राम होनेपर भी, वह अपने किसी असामी से परिचित न थे। यहातक कि कभी प्रयागके सरकारी भी सैर करने न गये थे।
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