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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/११०

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होली का उपहार
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अमरकान्त ने पैकेट को दोनो हाथों से मज़बूत करके कहा-तुम लोग मुझे जाने दोगे या नहीं?

पहले स्वयंसेवक ने पैकेट पर हाथ बढ़ाते हुए कहा-जाये कसस देई। बिल्लाती कपड़ा लेके तुम इहाँ से कबौं नहीं जाय सकत हौं। .

अमरकान्त ने पैकेट को एक झटके में छुड़ाकर कहा-तुम मुझे हगिज़ नहीं रोक सकते !

उन्होंने आगे कदम बढ़ाया ; मगर दो स्वयंसेवक तुरन्त उनके सामने लेट गये। अब बेचारे बड़ी मुश्किल में फँसे । जिस विपत्ति से बचना चाहते थे, वह जबरदस्ती गले में पड़ गई । एक मिनट में बीसों आदमी जमा हो गये और चारों तरफ़ से उन पर टिप्पणियां होने लगीं।

'कोई जंटुलमैन मालूम होते हैं।'

'यह लोग अपने को शिक्षित कहते हैं । छिः! इस दूकान पर से रोज दस-पांच आदमी गिरफ्तार होते हैं; पर आपको इसकी क्या परवाह !'

'कपड़ा छीन लो और कह दो जाकर पुलिस में रपट करें।"

बेचारे बेड़ियाँ-सी पहने खड़े थे । कैसे गला छुटे, इसका कोई उपाय न सूझता था। मैकूलाल पर क्रोध पा रहा था कि उसी ने यह रोग उनके सिर मढ़ा। उन्हें तो किसी सौगात की फिक्र न थी। पाये वहां से कि कोई सौगात ले लो।

कुछ देर तक लोग टिप्पणियां ही करते रहे, फिर छीन-झपट शुरू हुई। किसी ने सिर से टोपी उड़ा दी। उसकी तरफ लपके, तो एक ने साड़ी का पैकेट हाथ से छीन लिया। फिर वह हाथों-हाथ गायब हो गई।

अमरकान्त ने बिगड़कर कहा-मैं जाकर पुलीस में रिपोर्ट करता हूँ। एक आदमी ने कहा-हा-हां, जरूर जाओ और हम सभी को फांसी चढ़वा दो!

सहसा एक युवती खद्दर की साड़ी पहने, एक थैला लिये आ निकली यहाँ यह हुड़दंगा देखकर बोली-क्या मुआमला है ! तुम लोग क्यों एक भले आदमी को दिक्क कर रहे हो।

अमरकान्त की जान में जान आई। उसके पास जाकर फरियाद करने