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समर-यात्रा
 


दिल फ़रियाद किये बगैर नहीं मानता। गांववालों ने अपने शहर के भाइयों से फ़रियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती,हमदर्दी तो करती है। दुःख-कथा सुनकर श्रीसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस-पास के गांवों के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते, तो गरीबों के आँसू पुछ जाते;किन्तु पुलीस ने उस गांव की नाकेबन्दी कर रखी थी, चारों सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे। यह घाव पर नमक था। मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशें उठाई और शहरवालों की अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गई थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गई और जब पुलोस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लाये। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। मैंने उन्हें रोका-मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे-मैं किसी से लड़ने थोड़े हो जाता हूँ। जब सरकार की प्राज्ञा के विरुद्ध जनाज़ा चला तो पचास हज़ार आदमी साथ थे। उधर पांच सौ सशस्त्र पुलीस रास्ता रोके खड़ी थी-सवार, प्यादे, सारजन्ट-पूरी फ़ौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामों को तलवारें चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार-बार पुलीस की धम.कियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियां चलाने का हुक्म हो गया। घण्टे भर बराबर फैर होते रहे,पूरे घण्टे भर तक! कितने मरे,कितने घायल हुए,कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल को थामे, कापती थी। पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गई। हजारों श्रादमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आँखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद ! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण प्रांखों से निकले पड़ते हैं; मगर इन भागनेवालों के पोछे वोर-व्रतधारियों का दल था, जो पर्वत की भौति अटल खड़ा छातियों पर गोलियां खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था। बन्दूकों की आवाजें साफ़ सुनाई देती थीं और हरेक धायँ-धायँ के बाद हज़ारों गलों से 'जय' की गहरी गगन-भेदी धनि निकलती थी। उस