पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/१३

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जेल
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ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी! कितना आकर्षण! कितना उन्माद ! बस यही जी चाहता था कि जाकर गोलियों के सामने खड़ी हो जाऊँ और हँसते-हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भास होता था कि मर जाना कोई खेल है।अम्माजी कमरे में भान को लिये मुझे बार-बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गई, तो वह भान को लिये हुए छज्जे पर आ गई। उसी वक्त दस-बारह आदमी एक स्ट्रेचर पर हृदयेश की लाश लिये हुए द्वार पर आये।अम्मा की उन पर नज़र पड़ी। समझ गई। मुझे तो सकता-सा हो गया। अम्मा ने जाकर एक बार बेटे को देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा,आशीर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरस्ते की तरफ़ चलो, जहाँ से अब भी घाय और जय को ध्वनि बारी-बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि-सी खड़ीकभी स्वामी की लाश को देखती थी, कभी अम्मा को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोई, न घबड़ाई। मुझमें जैसे स्पन्दन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गई हो।

क्षमा--तो क्या अम्मा भी गोलियों के स्थान पर पहुँच गई ?

मदुला--हाँ,यही तो विचित्रता है बहन ! बन्दूक की आवाज़ सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं खून देखकर मूर्छित हो जातो थीं वही अम्मा वीर सत्याग्रहियों की सफ़ों को चीरती हुई सामने खड़ी हो गई और एक ही क्षण में उनकी लाश भी ज़मीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया, व्रत का बन्धन टूट गया। सभी के सिरों पर ख न-सा सवार होगया। निहत्थे थे, अशक्त थे ; पर हरेक अपने अन्दर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था। पुलीस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते देखा तो होश जाते रहे। जाने लेकर भागे; मगर भागते हुए भी गोलियांँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था, न जाने किधर से एक गोलि आ उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, सांस तक न ली; मगर मेरी आँखों में अब भी आँसू न थे। मैंने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून के फौवारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह ख़ून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था, जो शायद उसके विवाह में गुलाल