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समर-यात्रा
 


किसी के कुएँ पर आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख ले, तो गजब हो जाय! एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा लिया और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधेरे साये में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर । बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों खून थकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। ये लोग कहते हैं कि ऊँचे हैं!

कुएँ पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आई थीं। इनमें बातें हो रही थीं।

'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताज़ा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं ?'

'हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।'

'हाँ यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुक्म चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडिया ही तो हैं !'

'लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम ? रोटी-कपड़ा नहीं पाती ?दस-पांँच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियां कैसी होती हैं ?'

'मत जलाओ, दीदी। छिन भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम तो किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता।'

दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आई। बे-फ़िक्रे चले गये थे। ठाकुर भी दरवाजा बन्द करके अन्दर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की सांँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ़ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी ज़माने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानता के साथ और समझ-बूझकर न गया होगा। गंगी दबे पांँव कुएँ की जगत पर चढ़ी। विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।

उसने रस्सी का फन्दा गले में डाला। दायें-बायें खोज की दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख करने लग रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफ़ी या रियायत की