शराब की दुकान
कांग्रेस-कमेटी में यह सवाल पेरा था-शराब और ताड़ी को दूकानों पर कौन धरना देने जाय ! कमेटी के पच्चीस मेम्बर सिर झुकाये बैठे थे ; पर किसी के मुंह से बात न निकलती थी। मुआमला बड़ा नाजुक था। पुलीस के हाथों गिरफ्तार हो जाना, तो ज़्यादा मुश्किल बात न थी। पुलीस के कर्मचारी अपनी ज़िम्मेदारियों को समझते हैं। क्यों अच्छे और बुरे तो सभी जगह होते हैं ; लेकिन पुलीस के अफ़सर कुछ लोगों को छोड़कर,सभ्यता से इतने खाली नहीं होते कि जाति और देश पर जान देनेवालों के साथ दुर्व्यवहार करें; लेकिन नशेबाज़ों में यह जिम्मेदारी कहाँ ? उनमें तो अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें घुड़की-धमकी के सिवा और किसी शक्ति के सामने झुकने की आदत नहीं। मारपीट से नशा हिरन हो सकता है; शांतिवादियों के लिए तो वह दरवाज़ा बन्द है। तब कौन इस ओखली में सिर दे ? कौन पियक्कड़ों की गालियां खाय ? बहुत सम्भव है कि वे हाथा-पाई कर बैठे। उनके हाथों पिटना किसे मंजूर हो सकता था ? फिर पुलीसवाले भी बैठे तमाशा न देखेंगे। उन्हें और भी भड़काते रहेंगे। पुलीस की शह पाकर ये नशे के बन्दे जो कुछ न कर डाले, वह थोड़ा! ईट का जवाब पत्थर से दे नहीं सकते और इस समुदाय पर विनती का कोई असर नहीं!
एक मेम्बर ने कहा---मेरे विचार में तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर हमारी लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और कोई उपाय नहीं सूझता।
सभापति ने कहा---हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किये लेता हूँ,पर धरना देना ज़रूरी है।
दुसरे महाशय बोले---उनके घरों पर जाकर समझाया जाय, तो अच्छा असर होगा।
सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा--- यह भी अच्छा उपाय है ; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते।