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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/६७

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शराब की दूकान
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थानेदार कितना बिगड़ रहा था। सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पियें और कोई हमें समझाने न पाये। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है?

कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा—हरएक बहानेसे पैसा खींचते हैं सब।

चौधरी-तो फिर क्या सलाह है ? है तो बुरी चीज़ ?

कल्लू-बहुत बुरी चीज़ है भैया, महात्माजी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।

चौधरी-अच्छा तो यह लो आज से अगर पिये तो दोगला !

यह कहते हुए चौधरी ने बोतल जमीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब ज़मीन पर बहकर सूख गई।

जयराम को शायद ज़िन्दगी में कभी इतनी खुशी न हुई थी। ज़ोर-ज़ोर से तालियांँ बजाकर उछल पड़े।

उसी वक्त दोनों ताड़ी पीनेवालों ने भी 'महात्माजी जय' की पुकारी और अपनी हांड़ी जमीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपककर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।

( ३ )

सड़क की पटरी पर कई नशेबाज़ बैठे इन चारों आदमियों की तरफ़ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहे थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहाँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अंगरेज़ों की मांस-मदिरा या ताड़ी को ज़िंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बगैर ज़िन्दगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुब दुर्बलेद्रिय होने के कारण नित्य आकर पी जाते थे। चौधरी-जैसे घाघ पियक्कड़ को बोतल पटकते देखकर उनकी आँखें खुल गई।

एक मरियल, दाढीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी। चौधरी ने उसे पीछे ढकेलकर कहा-पीठ क्या ठोंकते हो जी, जाकर अपनी बोतल पटक दो।

दाढ़ीवाले ने कहा-आज और पी लेने दो चौधरी ! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा।