डण्डों को रोकते थे और अविचलित रूप से खड़े थे। हिंसा के भावों में प्रवाहित न हो जाना उनके लिए प्रतिक्षण कठिन होता जाता था।.जब श्राघात और अपमान ही सहना है,तो फिर हम भी इस दीवार को पार करने की क्यों न चेष्टा करें ? लोगों को ख़याल आया,शहर के लाखों श्राद-"मियों की निगाहें हमारी तरफ़ लगी हुई हैं। यहां से यह झण्डा लेकर हम लौट जाय, तो फिर किस मुह से आजादी का नाम लेंगे;मगर प्राणरक्षा के लिए भागने का किसी को ध्यान भी न पाता था। यह पेट के भक्तों, किराये के टटुओं का दल न था। यह स्वाधीनता के सच्चे स्वयसेवकों का,आजादी के दीवानों का संगठित दल था-अपनी ज़िम्मेदारियों को खूब समझता था। कितनों ही के सिरों से खून जारी था, कितनों ही के हाथ जख्मी हो गये थे। एक हल्ले में यह लोग सवारों की सफ़ों को चीर सकते थे;मगर पैरों में बेड़ियां पड़ी हुई थीं -- सिद्धान्त की, धर्म की, आदर्श की।
दस-बारह मिनट तक यों ही डण्डों की बौछार होती रही और लोग शान्त खड़े रहे।
( २ )
इस मार-धाड़ की ख़बर एक क्षण में बाज़ार में जा पहुँची। इब्राहिम घोड़े से कुचल गये,कई आदमी जख्मी हो गये, कई के हाथ टूट गये ; मगर न वे लोग पीछे फिरते हैं और न पुलीस उन्हें आगे जाने देती है।मैकू ने उत्तजित होकर कहा -- अब तो भाई,यहाँ नहीं रहा जाता। मैं भी चलता हूँ।
दीनदयाल ने कहा -- हम भी चलते हैं भाई,देखी जायगी!
शंभू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दूकान बढ़ाई और बोला-एक दिन तो मरना ही है,जो कुछ होना है,हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहे हैं। देखते-देखते अधिकांश दुकानें बन्द हो गई। वह लोग,जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे,इधर-उधर से दौड़ पड़े और हज़ारों आदमियों का एक विराट् दल घटनास्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरे हुए मनुष्यों का समह था,जिसे सिद्धान्त और आदर्श की परवाह न थी। जो मरने के लिए ही नहीं,मारने के लिए