युद्ध के बाद प्रजा-पीडन के लिए ही रक्खा गया था ठीक वैसे ही आफ्रिका में उस सुलह रक्षा-विधान को महज भारतीयो को सताने के लिए अधिक समय तक रख छोडा था। गोरों पर तो प्रायः उसका अमल होता ही न था। अब अगर यही निश्चित हुआ कि परवाने लेना ही चाहिए तो उनमें पहचानने के लिए भी तो कोई निशानी चाहिए न ? इसलिए यह बराबर है कि जो दस्तखत न कर सकते हों उन्हें अपने अंगूठे की निशानी लगानी चाहिए । पुलिसवालों ने एक यह आविष्कार किया है कि किसी भी दो आदमियों के अंगूठों की रेखायें कभी एकसी नहीं होती। उनके स्वरूप और संख्या का उन लोगों ने वर्गीकरण भी किया है । इस शास्त्र का जाननेवाला दो अंगूठों के छाप की तुलना कर के एक ही दो मिनट के अंदर कह सकता है कि वे दो भिन्न भिन्न व्यक्तियों के हैं या एक ही के। तस्वीरें खींचने देने की कल्पना मुझे तो जरा भी पसंद नहीं थी। और मुसलमानों की दृष्टि से तो उसमें धार्मिक बाधा भी थी । आखिर हम इस निश्चय पर पहुंचे कि हरएक भारतीय अपने पुराने परवाने लौटा कर नवीन योजना के अनुसार बनाये परवाने ले लें और नवीन आनेवाले भारतीय नवीन परवाने ही लें। भारतीय इस बात के लिए कानून की दृष्टि से जरा भी बाध्य नहीं किये जा सकते थे। किन्तु उन्होंने अपनी स्वेच्छापूर्वक यह करना इसलिए ठीक समझा कि उनपर कहीं दूसरे अंकुश न रक्खे जावें, दूसरे, वे कपटपूर्वक किसीको वहां बुलाना नहीं चाहते इसे वे सिद्ध कर सकें और तीसरे रक्षा-विधान का उपयोग नवीन आनेवाले भारतीयों को सताने के लिए न होने पावे। यह कहा जा सकता है कि लगभग तमाम भारतीयों ने ये परवाने ले लिये थे । यह कोई ऐसी वैसी बात न थी। जिस बात के लिए कानून