पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२१७

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( १६० ) पैमाने पर अन्तर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी कार्यशक्ति का विकास करके ही हो सकती है, बुर्जुश्रा राज्यों की मैत्री पर भरोसा करके नहीं । युद्ध को अधिकाधिक समय तक दूर रस्त्रना उत्तम था, परन्तु राष्ट्र-लीग (Leagne of nations) सरीखे टूटे तिनके पर और सम्मिलित सुरक्षा पर भरोसा करना घातक था। स्टालिन ने राष्ट्र लीग को सामाज्यवादी लुटेरों का गिरोह बतलाया था। सन् १६२७ में उसने कहा था "सामाज्यवादी चालों को छिपाने के लिए लीग श्राफ नेशन्स की जो श्राड़ बनाई गई है, सोवियत राष्ट्र उसका भाग बनने के लिये तैयार नहीं है । लीग वह टट्टी है जिसकी अोट में सामाज्यवादी नेता मिलते और अपना खेल खेलते है" परन्तु सन् १६३४ में जव स्वयं सोवियत राष्ट्र लीग में सम्मि- लित हो गया, तब यह राग बिलकुल बदल गया। अब साम्यवादी 'अाततायी' अोर 'रक्षारत' राष्ट्रों में भेद करने लगे । १० मार्च सन् १६३६ को स्टालिन ने यह कहा था:- -"युद्ध अाक्रान्ता राष्ट्रों द्वारा लड़ा जा रहा है। वे अनाक्रमणशील राज्यों के हितों पर कुठाराघात कर रहे हैं-विशेषकर इङ्गलैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमरीका में ।" इस विभेद का एक और रूप वह है जिसके द्वारा वे शान्ति-प्रिय सामाज्यवादियों का प्रभेद करते हैं । उन्होंने लीग से कहा कि वह अाक्रांता राष्ट्रों को दण्ड दे और शान्ति-रिच पूँजीवादी राष्ट्रों का पक्ष ले । हमारे इस युग में दो सामाज्यवादी राज्यों के बीच इस प्रकार के भेद करना मार्सवाद के साथ खींचा- नानी करना है। मार्क्सवाद किसी युद्ध का स्वरूप इस प्रश्न के उत्तर पर नहीं निर्धारित करता कि उस युद्ध को किसने छेड़ा है । सचाई यह है कि वैभव से छके हुये राष्ट्र शान्ति प्रिय इसलिए लगते थे क्योंकि वे मौजूदा अवस्था में तनिक भी हेर फेर नहीं चाहते थे। साम्यवादी लोग प्रजातन्त्रीय पूँजीवादी राज्य और फासिष्ट